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होना चाहिए।
(ख) करुणा-भाव-भोजन बनाने एवं परोसने वाले को प्रत्येक जीव के प्रति करुण भाव रखना आवश्यक है, तभी वह निर्दोष, स्वास्थ्य-वर्धक भोजन परोस सकता है। बिना करुणा के भोजन अरुचिकर, अपूर्ण एवं विकृति करने वाला होता है, पुष्टिकारक नहीं होता है।
भोजन ग्रहण करने वाले को जीवों के प्रति करुणा-भाव रहना चाहिए, जिससे उसे ध्यान रहे कि हमारे भोजन के कारण अन्य जीवों को कष्ट या उनकी विराधना तो नहीं हो रही है। करुणा भाव ही शाकाहार को प्रोत्साहन देता है। मांसाहारी के करुणा नहीं होती है। बहुत जीवों का घात जिस वनस्पति के सेवन से होता है, करुणा-भावों का कर्ता उनका त्याग कर देता है। करुणाभाव पूर्वक बनाया गया भोजन ही पवित्र होता है।
(ग) विनय-भाव- भोजन बनाने, परोसने एवं ग्रहण करने वालों के अरिहन्तादिक परमगुरुओं में विनय-भाव का होना आवश्यक होता है। ईष्या न होना, त्याग में विषाद न होना, देने की इच्छा करने वाले में, देनेवालों में या जिसने दिया है, उन-सब में प्रीति होना, कुशल अभिप्राय, प्रत्यक्ष फल की आकांक्षा न होना, किसी से विसंवाद नहीं करना, विनय-भाव रखना विनय-शुद्धि है।
(घ) दान का भाव- भक्ति, श्रद्धा, सत्त्व, तुष्टि, ज्ञान, अलौल्य, क्षमा के साथ मन, वचन, काय तथा कृत, कारित, और अनुमोदना द्वारा विशुद्ध आहारादि दान देना दान-शुद्धि है। साधु या श्रावक को बल, आयु, एवं शरीर की पुष्टि के लिए नहीं अपितु ज्ञान (स्वाध्याय), संयम, ध्यान एवं प्राणों को धारण करने के लिए भोजन देना दान-शुद्धि
आहार-प्रमाण- उतना ही भोजन ग्रहण करें, जितना सुगमता से पचा सकें। गरिष्ट भोजन भूख से आधा एवं हल्के पदार्थों को तृप्ति होने तक सेवन करें।
व्यक्ति को भूख से अधिक नहीं खाना चाहिए। वह आधा पेट भोजन करें, तृतीय भाग जल से भरें, एवं चौथा भाग वायु के संचार को अवशेष रखें। ठंडा और गर्म भोजन मिलाकर ग्रहण नहीं करना, मात्रा से अधिक एवं अति-तृष्णा से भोजन ग्रहण करना, निन्दा, ग्लानि करते हुए भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए।"
सोलह प्रकार की शुद्धि से शुद्ध भोजन करने वाला निरोग, अप्रमादी एवं उत्साही होता हुआ विकारी भावों से बचकर सन्मार्ग पर लगता है, बैर भाव का अभाव होता है, परस्पर में प्रीति, वात्सल्य एवं मैत्रीभाव प्रकट होता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. सर्वार्थसिद्धि 2, 30, पृ. 133, भारतीय ज्ञानपीठ सन् 1971 सम्पादक---पं. फूलचन्द्र
सोला :: 375
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