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सल्लेखना
-पण्डित रतनचन्द भारिल्ल
मरण और समाधिमरण-ये दोनों मानव की अन्तिम समय की बिल्कुल भिन्न-भिन्न स्थितियाँ हैं। यदि एक पूर्व है तो दूसरा पश्चिम, एक अनन्त दु:खमय और दुःखद है तो दुसरा असीम सुखमय व सुखद। मरण की दुःखद स्थिति से सारा जगत् सु-परिचित तो है ही, भुक्त-भोगी भी है, पर समाधिमरण की सुखानुभूति का सौभाग्य विरलों को ही मिलता है, मिल पाता है। सल्लेखना समाधिमरण के समय होने वाली काय व कषाय को कृष करने की प्रक्रिया का नाम है।
आत्मा की अमरता से अनभिज्ञ अज्ञजनों की दृष्टि में 'मरण' सर्वाधिक दुःखद, अप्रिय, अनिष्ट व अशुभ प्रसंग के रूप में ही मान्य रहा है। उनके लिए 'मरण' एक ऐसी अनहोनी अघट घटना है, जिसकी कल्पना मात्र से अज्ञानियों का कलेजा काँपने लगता है, कण्ठ अवरुद्ध हो जाता है, हाथ-पाँव फूलने लगते हैं। उन्हें ऐसा लगने लगता है कि मानों उन पर कोई ऐसा अप्रत्याशित-अकस्मात् अनभ्र वज्रपात होने वाला है, जो उनका सर्वनाश कर देगा, नेस्त-नाबूत कर देगा, उनका अस्तित्व ही समाप्त कर देगा। समस्त सम्बन्ध और इष्ट संयोग अनन्तकाल के लिए वियोग में बदल जाएँगे। ऐसी स्थिति में उनका 'मरण' 'समाधिमरण' में परिणत कैसे हो सकता है?...अर्थात् नहीं हो सकता।
जब चारित्रमोहवश या अन्तर्मुखी पुरुषार्थ की कमजोरी के कारण आत्मा की अमरता से सुपरिचित-सम्यग्दृष्टि-विज्ञजन भी 'मरण-भय' से पूर्णतया अप्रभावित नहीं रह पाते, उन्हें भी समय-समय पर इष्ट-वियोग के विकल्प सताये बिना नहीं रहते। ऐसी स्थिति में देह-जीव को एक मानने वाले मोही-बहिरात्माओं की तो बात ही क्या है?....मृत्युभय से उनका प्रभावित होना व भयभीत होना तो स्वाभाविक ही है।
मरणकाल में चारित्रमोह के कारण यद्यपि ज्ञानी के तथा अज्ञानी के बाह्य व्यवहार में अधिकांश कोई खास अन्तर दिखायी नहीं देता, दोनों को एक जैसा रोते-बिलखते, दुःखी होते भी देखा जा सकता है। फिर भी आत्मज्ञानी-सम्यग्दृष्टि व अज्ञानी-मिथ्यादृष्टि के मृत्युभय में जमीन-आसमान का अन्तर होता है; क्योंकि दोनों की श्रद्धा में भी जमीनआसमान जैसा ही महान अन्तर आ जाता है।
सल्लेखना :: 377
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