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अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष तथा पुण्य-पाप आदि सात तत्त्व अथवा नौ पदार्थों की सही समझ, इनमें हेयोपादेयता का विवेक एवं सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा अनिवार्य है। इसके बिना सम्यग्दर्शन की प्राप्ति सम्भव नहीं है। संन्यास व समाधि भी इसके बिना सम्भव नहीं है।
तत्त्वों का मनन, मिथ्यात्व का वमन, कषायों का शमन, इन्द्रियों का दमन, आत्मा में रमण-यही सब समाधि के सोपान हैं। वस्तुतः कषाय-रहित शान्त परिणामों का नाम ही तो समाधि है। ____ शास्त्रीय शब्दों में कहें तो–“आचार्य जिनसेन कृत 'महापुराण' के इक्कीसवें अध्याय में कहा है-'सम' शब्द का अर्थ है एकरूप करना, मन को एकरूप या एकाग्र करना। इस प्रकार शुभोपयोग में मन को एकाग्र करना समाधि शब्द का अर्थ है।"
इसी प्रकार भगवती आराधना' में भी समाधि के सम्बन्ध में लिखा है-"सम शब्द का अर्थ है एकरूप करना, मन को एकाग्र करना, शुभोपयोग में मन को एकाग्र करना।" __ आचार्य कुन्दकुन्द कृत 'नियमसार' गाथा 122 में समाधि की चर्चा करते हुए कहा गया है कि -"वचनोच्चारण की क्रिया का परित्याग कर वीतराग-भाव से जो आत्मा को ध्याया जाता है, उसे समाधि कहते हैं।" ___ आचार्य अमृतचन्द्र 'पुरुषार्थसिद्धयुपायु' में कहते हैं कि सल्लेखना आत्मघात नहीं है। मूल श्लोक निम्न प्रकार है
मरगडेणवश्यं भाविनि, कषाय सल्लेखना तनू करण मात्रे।
रागादिमन्तरेण व्याप्रियमाणस्य नात्मघातोऽस्ति ।।77॥ अवश्यंभावी मरण के समय कषायों के कारण (राग-द्वेष कम करने से) प्राण त्याग होने पर भी आत्मघात नहीं होता।
आत्मघात की स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि जो क्रोधादि कषायों के वश होकर श्वास-निरोध, जल, अग्नि, विष, शस्त्रादि से अपने प्राण त्यागता है, उसे आत्मघाती कहते हैं-मूल श्लोक इस प्रकार है
यो हि कषायाविष्ट, कुंभक-जल-धूमकेतु-विषशस्त्रैः।
व्यपरोपयति प्राणान् तस्य स्यात् सत्यमात्मवधः ।।78 ।। __ आचार्य योगीन्दुदेव कृत 'परमात्मप्रकाश' की 190वीं गाथा में परम समाधि की व्याख्या करते हुए ऐसा कहा है कि -"समस्त विकल्पों के नाश होने को परम समाधि कहते हैं।"
इसे ही ध्यान के प्रकरण में ऐसा कहा है कि-"ध्येय और ध्याता का एकीकरणरूप समरसीभाव ही समाधि है।"
'स्याद्वाद मंजरी' की टीका में योग और समाधि में अन्तर स्पष्ट करते हुए कहा है"बाह्यजल्प और अन्तर्जल्प के त्यागरूप तो योग है तथा स्वरूप में चित्त का निरोध करना
सल्लेखना :: 383
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