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दुःख मैंने इस जगत् में अनन्तबार भोगे हैं, फिर भी आत्मा का कुछ भी नहीं बिगड़ा । अतः इस थोड़े से दुःख से क्या घबराना ?... यदि पीड़ा चिन्तन आर्तध्यान होगा, तो फिर नये दुःख के बीज पड़ जाएँगे । अतः इस पीड़ा पर से अपना उपयोग हटाकर मैं अपने उपयोग को आत्म-चिन्तन में लगाता हूँ। इससे पूर्व - बद्ध कर्मों की निर्जरा तो होगी ही, नवीन कर्मों का बन्ध भी नहीं होगा। जो असाता कर्म के उदय में दुःख आया है, उसे सहना तो पड़ेगा ही, यदि समतापूर्वक सह लेंगे और तत्त्व - ज्ञान के बल पर संक्लेश परिणामों से बचे रहेंगे तथा आत्मा की आराधना में लगे रहेंगे, तो दुःख के कारणभूत सभी संचित - कर्म क्षीण हो जाएँगे।"
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हम चाहे निर्भय रहें या भयभीत, रोगों का उपचार करें या न करें, जो प्रबल कर्म उदय आएँगे, वे तो फल देंगे ही। उपचार भी कर्म के मन्दोदय में ही अपना असर दिखा सकेगा। जब तक असाता का उदय रहता है, तब तक औषधि निमित्त रूप से भी कार्यकारी नहीं होती । अन्यथा बड़े-बड़े वैद्य, डाक्टर, राजा-महाराजा तो कभी बीमार ही नहीं पड़ते; क्योंकि उनके पास साधनों की क्या कमी ?... अतः स्पष्ट है कि होनहार के आगे किसी का वश नहीं चलता, - ऐसा मानकर आये दुःख को समताभाव से सहते हुए सब के ज्ञातादृष्टा बनने का प्रयास करना ही योग्य है। ऐसा करने से ही मैं अपने मरण को समाधिमरण में परिणत कर सकता हूँ ।
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आचार्य कहते हैं कि - यदि असह्य वेदना हो रही हो और उपयोग आत्म - ध्यान में न लगता हो, मरण समय हो, तो ऐसा विचार करें कि 'कोई कितने ही प्रयत्न क्यों न करे, पर होनहार को कोई टाल नहीं सकता। जो सुख-दुःख, जीवन-मरण जिस समय होना है, वह तो होकर ही रहता है।"
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'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' में स्पष्ट लिखा है कि – “ साधारण मनुष्य तो क्या, असीम शक्ति सम्पन्न इन्द्र व अनन्त बल के धनी जिनेन्द्र भी स्व- समय में होने वाली सुख-दुःख व जीवन-मरण पर्यायों को नहीं पलट सकते।" ऐसे विचारों से सहज समता आती है और राग-द्वेष कम होकर मरण समाधिमरण में बदल जाता है ।
"समाधि नाम निः कषाय का है, शान्त परिणामों का है। (भूमिकानुसार) कषाय-रहित ( या कषाय की मन्दता में ) शान्त परिणामों से मरण होना समाधिमरण है । "
" सम्यग्ज्ञानी पुरुष का यह सहज स्वभाव ही है कि वह समाधिमरण की ही इच्छा करता है । उसकी हमेशा यही भावना रहती है... अन्त में मरण समय निकट आने पर वह सावधान हो जाता है ।"
सम्यग्दृष्टि के हृदय में आत्मा का स्वरूप प्रगटरूप से प्रतिभासता है ।... वह अपने को साक्षात् पुरुषाकार, अमूर्तिक, चैतन्य धातु का पिण्ड, अनन्तगुणों से युक्त चैतन्यदेव ही जानता है, उसके अतिशय से ही वह परद्रव्य के प्रति रंचमात्र भी रागी नहीं होता ।
वह मरण के समय इसप्रकार भावना भाता है कि - " अब मुझे ऐसे चिह्न दिखायी
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