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देने लगे हैं, जिनसे मालूम होता है कि अब इस शरीर की आयु थोड़ी ही है, इसलिए मुझे सावधान होना उचित है। इसमें देर करना उचित नहीं है।"
समाधिधारक ज्ञानी व्यक्ति विचार करता है कि -"मैं ज्ञाता-दृष्टा हुआ शरीर के नाश को देख रहा हूँ। मैं इसका पड़ौसी हूँ न कि कर्ता या स्वामी । मैं तो शरीरादि को तमाशगीर की तरह देख रहा हूँ। मेरा स्वरूप तो एक चेतनस्वभाव शाश्वत अविनाशी है। उसकी महिमा अद्भुत है।"
"...तीन लोक में जितने पदार्थ हैं, वे सब अपने-अपने स्वभाव रूप परिणमन करते हैं। कोई किसी का कर्ता नहीं है, कोई किसी का भोक्ता नहीं है।" ___ "मैं तो इस ज्ञायक स्वभाव ही का कर्ता और भोक्ता हूँ और उसी का वेदन एवं अनुभव करता हूँ। इस शरीर के जाने से मेरा कुछ भी बिगाड़ नहीं और इसके रहने से मेरा कोई सुधार भी नहीं है।"
अज्ञानी जीव पिता-माता, भाई-भाभी, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री आदि सम्बन्धी जनों के वियोग में विलाप करते हैं, जबकि ज्ञानी जीव विचार करते हैं कि- इन सब संयोगों के अभाव में विलाप करने से अपने में ही आर्तध्यान होगा; वियोगी जीव तो अब मिलने वाले हैं नहीं, अतः समता में ही सुख-शान्ति है। ऐसे विचार से ज्ञानी दु:खी नहीं होते, दु:ख को लम्बाते नहीं है।
ज्ञानी विचार करता है कि मैं तो अनादिकाल से अविनाशी चैतन्यदेव त्रिलोक द्वारा पूज्य पदार्थ हूँ। उस पर काल का जोर नहीं चलता, तथा मैं तो चैतन्य शक्ति वाला शास्वत बना रहने वाला हूँ। उसका अनुभव करते हुए दुःख का अनुभव कैसे हो? नहीं होता। ___ मेरे सर्वांग में चैतन्य ही चैतन्य उसी प्रकार व्याप्त है, जिस प्रकार नमक की डली में सर्वत्र छार व्याप्त है, तथा शक्कर में मिठास व्याप्त है, मधुर रस व्याप्त है।
मेरा निज रूप चैतन्य स्वरूप अनन्त आत्मीक सुख का भोक्ता है । वह आकाश के समान स्वच्छ निर्मल है। मैं आकाश की तरह अमूर्तिक, निर्विकार, अविनाशी, पूर्ण निर्मलता का पिण्ड हूँ। निश्चयतः मुझे मेरा स्वरूप ही शरण है और बाह्य रूप से पंचपरमेष्ठी, जिनवाणी और रत्नत्रय धर्म शरणभूत हैं।
सम्यग्दृष्टि पुरुष पहले तो स्वरूप में ही उपयोग लगावे। यदि उसमें उपयोग नहीं लगे, तो अरहन्त व सिद्ध के स्वरूप का अवलोकन कर उनके द्रव्य-गुण-पर्याय का विचार करे। अपने स्वरूप जैसा ही अरहन्तों का स्वरूप है और अर्हन्त-सिद्ध जैसा ही अपना स्वरूप है, अपने और अर्हन्त-सिद्धों के द्रव्य स्वभाव में अन्तर नहीं है, किन्तु उनके पर्याय में तो अन्तर है ही। मैं तो द्रव्य-स्वभाव का ही ग्राहक हूँ, इसलिए अर्हन्त का ध्यान करते हुए आत्मा का ध्यान भली प्रकार समझता है। अर्हन्तों व आत्मा के स्वरूप में अन्तर नहीं है। चाहे अर्हन्त का ध्यान करो, चाहे आत्मा का ध्यान करो-दोनों समान हैं।' ऐसा विचार करता हुआ सम्यग्दृष्टि पुरुष सावधानीपूर्वक स्वभाव में स्थित होता है। ___ सम्यग्दृष्टि पुरुष माता-पिता से ममत्व छुड़ाने के लिए बहुत विस्तार से कहता है कि
388 :: जैनधर्म परिचय
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