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सल्लेखना में जहाँ काय व कषाय कुश करना मुख्य है, वहीं समाधि में निजशुद्धात्म स्वरूप का ध्यान प्रमुख है। स्थूलरूप से तीनों एक होते हुए भी साधन-साध्य की दृष्टि से संन्यास समाधि का साधन है और समाधि सल्लेखना का, क्योंकि संन्यास बिना समाधि सम्भव नहीं और समाधि बिना सल्लेखना-कषायों का कृश होना सम्भव नहीं होता।
सल्लेखना के आगम में कई प्रकार से भेद किये हैं; जिनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
नित्य-मरण सल्लेखना-प्रतिसमय होने वाले आयुकर्म के क्षय के साथ द्रव्य सल्लेखनापूर्वक विकारी परिणाम विहीन शुद्ध परिणमन, नित्य-मरण सल्लेखना है।
तद्भवमरण सल्लेखना-भुज्यमान (वर्तमान) आयु के अन्त में शरीर और आहार आदि के प्रति निर्ममत्व होकर साम्यभाव से शरीर का त्यागना, तद्भवमरण-सल्लेखना है।
काय-सल्लेखना–काय से ममत्व कम करते हुए काय को कृश करना; उसे सहनशील बनाना काय-सल्लेखना है। एतदर्थ कभी उपवास, कभी एकासन, कभी नीरस आहार, कभी अल्पाहार (उनोदर)-इसतरह क्रम-क्रम से शक्तिप्रमाण आहार को कम करते हुए क्रमश: दूध, छाछ, गर्म पानी से शेष जीवन का निर्वाह करते मरण के निकट आने पर पानी का भी त्याग करके देह का त्याग करना काय-सल्लेखना है।
भक्त-प्रत्याख्यान सल्लेखना-इसमें भी उक्त प्रकार से ही भोजन का त्याग होता है। इसका उत्कृष्ट काल 12 वर्ष व जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है।
कषाय सल्लेखना-तत्त्व-ज्ञान के बल से कषायें कृश करना।
समाधिमरण-आगम में मरण या समाधिमरण के उल्लेख अनेक अपेक्षाओं से हुए हैं-उनमें निम्नांकित पाँच प्रकार के मरण की भी एक अपेक्षा है। __ 1. पण्डित-पण्डित मरण-केवली भगवान की देह को छोड़ने की क्रिया को पण्डित-पण्डित मरण कहते हैं। इस मरण के बाद जीव पुनः जन्म धारण नहीं करता।
2. पण्डित मरण-यह मरण छठवें गुणस्थान में रहने वाले मुनिराजों के होता है। एकबार ऐसा मरण होने पर दो-तीन भव में ही मुक्ति हो जाती है।
3. बाल पण्डित मरण-यह मरण देशसंयमी के होता है। इस मरण के होने पर सोलहवें स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है।
___4. बाल मरण-यह मरण चतुर्थगुणस्थान में रहने वाले अविरत सम्यग्दृष्टियों के होता है। इस मरण से प्रायः स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
5. बाल-बाल मरण-यह कुमरण मिथ्यादृष्टि के होता है। यह मरण करने वाले अपनी-अपनी लेश्या व कषाय के अनुसार चारों गतियों के पात्र होते हैं। पाँचवें बाल-बाल मरण को छोड़कर उक्त चारों ही मरण समाधिपूर्वक ही होते हैं, परन्तु स्वरूप की स्थिरता और परिणामों की विशुद्धता अपनी-अपनी योग्यतानुसार होती है।
समाधिधारक यह विचार करता है कि-"जो दुःख मुझे अभी है, इससे भी अनन्तगुणे
386 :: जैनधर्म परिचय
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