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नहीं भाई! ऐसी बात नहीं है, तुम्हें सुनने व समझने में भ्रम हो गया है, समाधि व समाधिमरण-दोनों बिल्कुल अलग-अलग विषय हैं । जब समाधि की बात चले, तो उसे मरण से न जोड़ा जाय। मरते समय तो समाधि-रूप वृक्ष के फल खाये जाते हैं। बीज तो समाधि अर्थात् समता-भाव से जीवन जीने का अभी ही बोना होगा, तभी तो उस समय समाधिमरण-रूप फल प्राप्त हो सकेगा। कहा भी है
" दर्शन - ज्ञान - चारित्र को, प्रीति सहित अपनाय ।
च्युत न होय स्वभाव से, वह समाधि फल पाय ॥”
समाधि तो साम्य- भावों से निष्कषाय- भावों से, निराकुलता से जीवन जीने की कला है, उससे मरण का क्या सम्बन्ध ?... हाँ, जिसका जीवन समाधिमय होता है, उसका मरण भी समाधिमय हो जाता है; मरण की चर्चा तो मात्र सजग व सावधान करने के लिए, शेष जीवन को सफल बनाने के लिए, संवेग भावना जगाने के लिए बीच-बीच में आ जाती है। सो उसमें भी अपशकुन- - जैसा कुछ नहीं है।
भाई ! मौत की चर्चा अपशकुन नहीं है, बल्कि उसे अपशकुन मानना अपशकुन है। हमें इस खरगोश वाली वृत्ति को छोड़ना ही होगा, जो मौत को सामने खड़ा देख अपने कानों से आँखें ढक लेता है और स्वयं को सुरक्षित समझ लेता है। जगत् में जितने भी जीव जन्म लेते हैं, वे सभी मरते तो हैं ही; परन्तु सभी जीवों की मृत्यु को महोत्सव की संज्ञा नहीं दी जा सकती, उनके मरण को समाधिमरण नहीं कहा जा सकता।
हाँ, जिन्होंने तत्त्व - ज्ञान के बल पर अपना जीवन भेद - विज्ञान के अभ्यास से, निज आत्मा की शरण लेकर समाधिपूर्वक जिया हो, निष्कषाय भावों से, शान्त परिणामों से जिया हो और मृत्यु के क्षणों में देहादि से ममता त्यागकर समतापूर्वक प्राणों का विसर्जन किया हो, उनके उस प्राणविसर्जन की क्रिया-प्रक्रिया को ही समाधिमरण या मृत्यु- महोत्सव कहते हैं। एतदर्थ सर्वप्रथम संसार से संन्यास लेना होता है ।
संन्यास व समाधि का स्वरूप
संन्यास अर्थात् संसार, शरीर व भोगों को असार, क्षणिक एवं नाशवान् तथा दुःखरूप व दुःख का कारण मानकर उनसे विरक्त होना । संन्यास की सर्वत्र यही व्याख्या है। ऐसे संसार, शरीर व भोगों से विरक्त, आत्म-साधना के पथ पर चलने वाले भव्यात्माओं को संन्यासी कहा जाता है । साधु तो संन्यासी होते ही हैं, गृहस्थों को भी इस संन्यास की भावना को निरन्तर भाना ही चाहिए।
'समाधि' के लिए निजस्वरूप की समझ अनिवार्य है । आत्मा की पहचान, प्रतीति व श्रद्धा समाधि का प्रथम सोपान है। सच्चे देव - शास्त्र - गुरु की श्रद्धा उसमें निमित्त होती है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक् चारित्र रूप मोक्षमार्ग पर अग्रसर होकर संन्यासपूर्वक ही समाधि की साधना सम्भव है । सम्यग्दर्शन अर्थात् वस्तुस्वरूप की यथार्थ श्रद्धा, जीव,
382 :: जैनधर्म परिचय
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