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समाधिमरण पूर्वक मर ही सकता है।
में प्रयोजनभूत दो-तीन प्रमुख
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अतः हमें आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए मोक्षमार्ग सिद्धान्तों को समझना अति आवश्यक है । एक तो यह कि से पहले, किसी को कभी कुछ नहीं मिलता और दूसरा यह है दुःख के दाता हैं, भले-बुरे के कर्ता हैं और न कोई हमें भी सुख-दुःख दे सकता है, हमारा भला-बुरा कर सकता है
- भाग्य से अधिक और समय - न तो हम किसी के सुख
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किसी कवि ने कहा है
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'तुष्टो हि राजा यदि सेवकेभ्यः, भाग्यात् परं नैव ददाति किंचित् । अहिर्निशं वर्षति वारिवाह तथापि पत्र त्रितयः पलाशः ॥"
राजा सेवक पर कितना ही प्रसन्न क्यों न हो जाये; पर वह सेवक को उसके भाग्य अधिक धन नहीं दे सकता। दिन-रात पानी क्यों न बरसे, तो भी ढाक की टहनी में तीन से अधिक पत्ते नहीं निकलते ।
यह पहला सिद्धान्त निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध की अपेक्षा है । इसका आधार जैनधर्म की कर्म व्यवस्था है। दूसरा सिद्धान्त 'वस्तु स्वातन्त्र्य' का सिद्धान्त है, जो कि जैनदर्शन का प्राण है। इसके अनुसार 'जगत की प्रत्येक वस्तु स्वभाव से ही स्वतन्त्ररूप से परिणमनशील है, पूर्ण स्वावलम्बी है ।'
जब तक यह जीव इस वस्तुस्वातन्त्र्य के इस सिद्धान्त को नहीं समझेगा और क्रोधादि विभाव- भावों को ही अपना स्वभाव मानता रहेगा; अपने को पर का और पर को अपना कर्ता-धर्ता मानता रहेगा तब तक समता एवं समाधि का प्राप्त होना सम्भव नहीं है ।
देखो, " लोक के प्रत्येक पदार्थ पूर्ण, स्वतन्त्र और स्वावलम्बी हैं। कोई भी द्रव्य किसी परा-द्रव्य के आधीन नहीं है । एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता - भोक्ता भी नहीं है । " ऐसी श्रद्धा एवं समझ से ही समता आती है, कषायें कम होती हैं, राग-द्वेष का अभाव होता है। बस, इसीप्रकार के श्रद्धान- ज्ञान व आचरण से आत्मा निष्कषाय होकर समाधिमय जीवन जी सकता है।
स्वयं किए जो कर्म शुभाशुभ फल निश्चय ही वे देते। करे आप फल देय अन्य तो, स्वयं किए निष्फल होते ॥ अपने कर्म सिवाय जीव को, कोई न फल देता कुछ भी। पर देता है यह विचार तज, स्थिर हो छोड़ प्रमाद बुद्धि ॥ - भावनाद्वात्रिंशतिका, आचार्य अमितगति : हिन्दी अनुवाद - युगलजी
यहाँ कोई व्यक्ति झँझलाकर कह सकता है कि - समाधि .... समाधि.... समाधि... ? अभी से इस समाधि की चर्चा का क्या काम ?... यह तो मरण के समय धारण करने की वस्तु है न ?... अभी तो इसकी चर्चा शादी के प्रसंग पर मौत की ध्वनि बजाने - जैसी अपशकुन की बात है न ?
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