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अतः मृत्यु के समय ज्ञानी की आँखों में आँसू देखकर ही उसे अज्ञानी नहीं मान लेना चाहिए, क्योंकि वह अभी श्रद्धा के स्तर तक ही मृत्युभय से मुक्त हो पाया है...चारित्रमोह जनित कमजोरी तो अभी है ही न?....फिर भी वह विचार करता है कि-"स्वतन्त्रतया स्वचालित अनादिकालीन वस्तु-व्यवस्था के अन्तर्गत 'मरण' एक सत्य तथ्य है, जिसे न तो नकारा ही जा सकता है, न टाला ही जा सकता है और न आगे-पीछे ही किया जा सकता है।" कर्म सिद्धान्त के अनुसार भी जीवों का जीवन-मरण व सुख-दु:ख अपने-अपने कर्मानुसार ही होता है। कहा भी है
"परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा।" यद्यपि ज्ञानी व अज्ञानी अपने-अपने विकल्पानुसार इन प्रतिकूल परिस्थितियों को टालने के अन्त तक भरसक प्रयास करते हैं, तथापि उनके वे प्रयास सफल नहीं होते, हो भी नहीं सकते। अन्तत: इस पर्यायगत सत्य से तो सब का गुजरना ही पड़ता है। जो विज्ञजन तत्त्व-ज्ञान के बल पर इस उपर्युक्त सत्य को स्वीकार कर लेते हैं, उनका मरण समाधिमरण के रूप में बदल जाता है और जो अज्ञ-जन उक्त सत्य को स्वीकार नहीं करते, वे अत्यन्त संक्लेशमय परिणामों से मरकर नरकादि गतियों को प्राप्त करते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि-ज्ञानीजन स्वतन्त्र स्व-संचालित वस्तुस्वरूप के इस प्राकृतिक तथ्य से भलीभाँति परिचित होने से श्रद्धा के स्तर तक मृत्युभय से भयभीत नहीं होते और अपना अमूल्य समय व्यर्थ चिन्ताओं में व विकथाओं में बर्बाद नहीं करते; किन्तु इस तथ्य से सर्वथा अपरिचित अज्ञानी-जन अनादिकाल से हो रहे जन्म-मरण एवं लोकपरलोक के अनन्त व असीम दुःखों से बे-खबर होकर जन्म-मरण के हेतुभूत विकथाओं में एवं छोटी-छोटी समस्याओं को तूल देकर अपने अमूल्य समय व सीमित शक्ति को बर्बाद करते हैं, यह भी एक विचारणीय बिन्दु है।
ऐसे लोग न केवल समय व शक्ति बर्बाद ही करते हैं, बल्कि आर्त-रौद्र-ध्यान करके प्रचुर पाप भी बाँधते रहते हैं। यह उनकी सबसे बड़ी मानवीय कमजोरी है।।
यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि- जब भी और जहाँ कहीं भी दो परिचित व्यक्ति बातचीत कर रहे होंगे, वे निश्चित ही किसी तीसरे की बुराई-भलाई या टीका-टिप्पणी ही कर रहे होंगे। उनकी चर्चा के विषय राग-द्वेष-वर्द्धक विकथाएँ ही होंगे। सामाजिक व राजनैतिक विविध गतिविधियों की आलोचना-प्रत्यालोचना करके वे ऐसा गर्व का अनुभव करते हैं, मानों वे ही सम्पूर्ण राष्ट्र का संचालन कर रहे हों। भले ही, उनकी मर्जी के अनुसार पत्ता भी न हिलता हो। नये जमाने को कोसना, बुरा-भला कहना व पुराने जमाने के गीत गाना तो मानों उनका जन्मसिद्ध अधिकार ही है। उन्हें क्या पता कि वे यह व्यर्थ की बकवास द्वारा आर्त-रौद्र-ध्यान करके कितना पाप बाँध रहे हैं, जो कि प्रत्यक्ष कुगति का कारण है।
भला जिनके पैर कब्र में लटके हों, जिनको यमराज का बुलावा आ गया हो, जिनके
सल्लेखना :: 379
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