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भोजनशाला मल, मूत्र त्यागने के स्थान एवं मनुष्य और तिर्यंच के शरीर के अवयवों से दूर होना चाहिए। रसोईघर और शौचालय पास-पास न हो, तथा गीला चमड़ा, हड्डी, मांस, नख, केश आदि के सम्बन्ध से रहित भूमि श्रेष्ठ है ।'
(घ) दुर्गन्ध रहित - जहाँ निरन्तर दुर्गन्ध आती हो, अशुद्ध वस्तु जलाई जाती हो, कचरा डाला जाता हो, शूद्र रहते हो, गन्दी नाली बहती हो, शूद्रों का आना-जाना हो, दुर्गन्ध वाली वस्तु का भंडारन हो, कीटनाशक, जहरीली वस्तुओं का व्यापार हो, सडाँध आती हो, धुआँ रुकता हो, ऐसे स्थान का आहार के लिए त्याग कर देना चाहिए ।
3. कालशुद्धि - आहारशुद्धि के लिए समय का ध्यान रखना चाहिए। यह आहार को प्रभावित करता है । इसे चार भागों में विभक्त कर सकते हैं।
(क) ग्रहण काल - भोजन बनाते या आहार ग्रहण करते समय चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण नहीं होना चाहिए, ऐसे समय में स्वास्थ्य के लिए हानिकारक किरणें निकलती हैं। बिजली गिरना, इन्द्रधनुष होना, अकालवृष्टि, मेघगर्जन, मेघों के समूह से आच्छादित दिशाएँ, दिशादाह, धूमिकापात (कुहरा) आदि का अभाव होने से काल-शुद्धि होती है 110
(ख) शोक-काल- राजा एवं प्रियजन का मरण काल आचार्य, साधु की समाधि का समयत्र शोक के वातावरण में भोजन बनाना एवं आहार ग्रहण करना दूषण है। सुखदुःख और शोक के समय का अभाव काल-शुद्धि है ।
(ग) रात्रि - काल - रात्रि के समय भोजन बनाना और ग्रहण करना अशुद्ध, अशुभ एवं स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। दिन में भी जहाँ अँधेरा रहता हो, विद्युत प्रकाश करना पड़ता हो, ऐसे स्थान में भोजन बनाना एवं ग्रहण करना रात्रिभोजन के दूषण से सहित होता है। रात्रि में भोजन बनाना एवं ग्रहण करने से असंख्यात जीवों की हिंसा होती है । अतः रात्रि- - काल शुद्ध नहीं होता है ।
(घ) प्रभावना - काल - धर्म - प्रभावना या उत्सव के समय भोजन बनाना एवं ग्रहण नहीं करना चाहिए। संन्यास का काल, महा - उपवास, नन्दीश्वर महिमा एवं जिन महिमा के समय को छोड़कर आहार तैयार करना एवं ग्रहण करना श्रेष्ठ है ।"
4. भाव-शुद्धि - भोजन बनाने, परोसने, ग्रहण करने वालों के भावों में शुद्धि होना चाहिए। यह चार प्रकार से हो सकती है ।
(क) वात्सल्य-भाव- आत्मा में उठने वाली भावरूपी तरंगों का प्रभाव समस्त जड़ एवं चेतन पदार्थों पर पड़ता है । हमारी भावनाओं का प्रभाव स्वयं के शरीर में स्थित ग्रन्थियों पर भी पड़ता है, यदि हमारे भाव ईर्ष्या, डाह, द्वेष, क्रोध एवं बदले की भावना से युक्त होते हैं, तो अमृत तुल्य किया गया भोजन भी जहर जैसा कार्य करता है, अतः भोजन ग्रहण करने एवं परोसने वाले के भाव निस्वार्थ, निरपेक्ष और स्नेह से अनुरंजित 374 :: जैनधर्म परिचय
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