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सोला
डॉ. भरत कुमार बाहुबलि कुमार जैन
शरीर और पर्याप्तियों के अनुरूप पुद्गलों के ग्रहण करने की क्रिया को आहार कहते हैं ।' जैन - जीवन का विचार कर्ममूलक है, अतः यह आहार भी शरीर नामकर्म के उदय से होता है । सभी संसारी जीव आहार ग्रहण करते हैं। इनकी अपेक्षा आहार कर्माहार, नोकर्माहार, कवलाहार, लेप्याहार, ओजाहार एवं मानसाहार आदि अनेक प्रकार का है। इसमें मनुष्य व तिर्यंच कवलाहार करते हैं । इसमें ही शुद्धाशुद्धि का भेद होता है, शेष आहार प्राकृतिक हैं, अतः शुद्धाशुद्धि से रहित होते हैं। आहार-शुद्धि के प्रमुख चार सोपान माने गये हैं- 1. द्रव्यशुद्धि, 2. क्षेत्रशुद्धि, 3. कालशुद्धि, 4. भावशुद्धि । इनके चार-चार भेद किये गये हैं, जिससे आहारशुद्धि सोलह प्रकार की हो जाती है, इसे सोला ( सोलह ) कहते हैं ।
1. द्रव्यशुद्धि - आहार में लगने वाली सामग्री शुद्ध होना चाहिए। इसे चार भागों में विभक्त किया है।
372 :: जैनधर्म परिचय
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(क) अन्न शुद्धि - घुना, बींधा हुआ अनाज न हो। जिसमें त्रसजीवों का संदेह हो, उन पदार्थों का त्याग करना चाहिए। अन्नादिक अच्छी तरह शोधा गया हो। मन की असावधानी एवं प्रमाद पूर्वक न शोधा गया हो, शोधन - विधि अजानकार साधर्मी एवं जानकार विधर्मी से नहीं कराना चाहिए। जिस अन्न को शोधे बहुत समय न हो गया हो, उसका मर्यादा से अधिक काल न हो गया हो, और यदि हो गया हो, तो उसे पुन: शोधन करना चाहिए ।
सब्जी, फल आदि शुद्ध धुले हुए हो, ज्यादा पके व ज्यादा कच्चे न हो, सड़े-गले न हो, ज्यादा बड़े, ज्यादा छोटे न हो, पंचउदम्बर फल, कन्द-मूल, पत्र व पुष्प जाति की वनस्पतियाँ न हो, अपने स्वभाव से चलित अर्थात अन्य रूप स्वाद वाले, अंकुरित, फफूँद लगे पदार्थ न हो। वासा भोजन, आसव, अरिष्ट, अचार, मुरब्बा, मक्खन, मद्य, मांस, मधु आदि अशुद्ध द्रव्य न हो ।' भोजन बनाने एवं खाने वाले बर्तन टूटे नहीं होना चाहिए । (ख) जलशुद्धि - पत्थर फोड़कर निकाला हुआ अर्थात पर्वतीय झरनों का, रहट
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