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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org सोला डॉ. भरत कुमार बाहुबलि कुमार जैन शरीर और पर्याप्तियों के अनुरूप पुद्गलों के ग्रहण करने की क्रिया को आहार कहते हैं ।' जैन - जीवन का विचार कर्ममूलक है, अतः यह आहार भी शरीर नामकर्म के उदय से होता है । सभी संसारी जीव आहार ग्रहण करते हैं। इनकी अपेक्षा आहार कर्माहार, नोकर्माहार, कवलाहार, लेप्याहार, ओजाहार एवं मानसाहार आदि अनेक प्रकार का है। इसमें मनुष्य व तिर्यंच कवलाहार करते हैं । इसमें ही शुद्धाशुद्धि का भेद होता है, शेष आहार प्राकृतिक हैं, अतः शुद्धाशुद्धि से रहित होते हैं। आहार-शुद्धि के प्रमुख चार सोपान माने गये हैं- 1. द्रव्यशुद्धि, 2. क्षेत्रशुद्धि, 3. कालशुद्धि, 4. भावशुद्धि । इनके चार-चार भेद किये गये हैं, जिससे आहारशुद्धि सोलह प्रकार की हो जाती है, इसे सोला ( सोलह ) कहते हैं । 1. द्रव्यशुद्धि - आहार में लगने वाली सामग्री शुद्ध होना चाहिए। इसे चार भागों में विभक्त किया है। 372 :: जैनधर्म परिचय Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (क) अन्न शुद्धि - घुना, बींधा हुआ अनाज न हो। जिसमें त्रसजीवों का संदेह हो, उन पदार्थों का त्याग करना चाहिए। अन्नादिक अच्छी तरह शोधा गया हो। मन की असावधानी एवं प्रमाद पूर्वक न शोधा गया हो, शोधन - विधि अजानकार साधर्मी एवं जानकार विधर्मी से नहीं कराना चाहिए। जिस अन्न को शोधे बहुत समय न हो गया हो, उसका मर्यादा से अधिक काल न हो गया हो, और यदि हो गया हो, तो उसे पुन: शोधन करना चाहिए । सब्जी, फल आदि शुद्ध धुले हुए हो, ज्यादा पके व ज्यादा कच्चे न हो, सड़े-गले न हो, ज्यादा बड़े, ज्यादा छोटे न हो, पंचउदम्बर फल, कन्द-मूल, पत्र व पुष्प जाति की वनस्पतियाँ न हो, अपने स्वभाव से चलित अर्थात अन्य रूप स्वाद वाले, अंकुरित, फफूँद लगे पदार्थ न हो। वासा भोजन, आसव, अरिष्ट, अचार, मुरब्बा, मक्खन, मद्य, मांस, मधु आदि अशुद्ध द्रव्य न हो ।' भोजन बनाने एवं खाने वाले बर्तन टूटे नहीं होना चाहिए । (ख) जलशुद्धि - पत्थर फोड़कर निकाला हुआ अर्थात पर्वतीय झरनों का, रहट For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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