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षोडश कारण व्रत- षोडश कारण भावनाएँ तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध का कारण होती हैं। भाद्रपद, माघ और चैत्र कृष्णा एकम से आश्विन, फाल्गुन और वैशाख कृष्णा एकम तक वर्ष में तीन बार एक-एक मास तक इस व्रत को करना चाहिए। यथाशक्य उपवास या एकासन इन दिनों श्रेयस्कर हैं। इन दिनों ब्रह्मचर्य से रहें और शरीर का शृंगार न करें। त्रिकाल सामायिक करें और दिन में तीन बार इस मन्त्र का जाप करें'ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादि-षोडशकारणेभ्यो नमः।' __इस व्रत को उत्कृष्ट सोलह वर्ष, मध्यम 5 वर्ष अथवा 2 वर्ष और जघन्य एक वर्ष कर उद्यापन किया जाये। सोलह-सोलह उपकरण मन्दिर जी में भेंट करें। सरस्वती भवन बनवायें, पवित्र जिनधर्म का उपदेश दे या प्रवचन कराएँ। यदि द्रव्य व्यय करने की शक्ति न हो, तो दुगुना व्रत करें।
सुगन्ध दशमी व्रत- यह व्रत भादों शुक्ल दशमी को किया जाता है। इस दिन जलधारा-पूर्वक जिनाभिषेक के साथ जिनेन्द्र भगवान की पूजन करना चाहिए। विशेष रूप से शीतलनाथ भगवान की भाव-भक्ति-पूर्वक पूजा करनी चाहिए। व्रत के दिन घर के समस्त कार्य जिनसे पाप का आस्रव होता हो, उन्हें छोड़ देना चाहिए। यह व्रत दश वर्ष तक मन लगाकर करना चाहिए, अनन्तर उद्यापन करना चाहिए। इस दिन दस-दस श्रीफल आदि फल और दस पुस्तकें भेंट करना चाहिए।4।।
व्रत का फल- किस व्रत के करने का क्या सुपरिणाम हुआ अथवा इनका फल किन-किन को प्राप्त हुआ, –इसका उल्लेख कथा-ग्रन्थों और व्रत-विधान-संग्रह, व्रतोद्यापन-संग्रह आदि ग्रन्थों में संगृहीत है। व्रत धारण करने का फल प्रायः स्वर्ग और परम्परया मोक्ष बतलाया गया है। अत: जीवन में कुछ न कुछ व्रत अवश्य धारण करने चाहिए। एक-एक व्रत को धारण करने का महान फल हुआ, ऐसा शास्त्रों में वर्णित है। अतः श्रद्धापूर्वक व्रताचरण करना चाहिए।
व्रत की रक्षा हेतु भावनाएँ- हिंसादि पाँच दोषों में अपाय (विघ्न) और अवद्य (पाप) का दर्शन भावने योग्य है अथवा हिंसादि दुःख ही हैं, ऐसी भावना करना चाहिए। प्राणीमात्र में मैत्री, गणाधिकों में प्रमोद, दीन-दुखियों के प्रति करुणा का व्यवहार और विरोधियों या अशिष्ट आचरण करने वालों के प्रति माध्यस्थ्य भाव रखना चाहिए। संवेग (संसार से भय) और वैराग्य के लिए जगत् के स्वभाव और शरीर के स्वभाव का विचार करना चाहिए। मुनि समस्त हिंसा के त्यागी होते हैं। श्रावक त्रस-हिंसा का त्यागी होने के साथ-साथ यथाशक्य एकेन्द्रिय जीव की हिंसा से भी बचता है।
सन्दर्भ 1. अरहंतसिद्ध केवलि अविउता सव्वसंघसक्खिस्स।
पच्चक्खाणस्स कदस्स भंजणादो वरं मरणं। -भगवती आराधना, 1633/1480
370 :: जैनधर्म परिचय
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