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व्रत : जैनाचार के आधार
डॉ. रमेशचन्द्र जैन
व्रत का लक्षण-आचार्यों ने व्रत की अनेक परिभाषाएँ दी हैं, जिनमें से प्रमुख परिभाषाएँ या लक्षण इस प्रकार हैं
हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्योविरतिव्रतम्।। - तत्त्वार्थसूत्र-7/1 हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म (कुशील) और परिग्रह से निवृत्त होना व्रत है। 'व्रतमभिसन्धिकृतो नियमः इदं कर्तव्यमिदं न कर्तव्यमिति वा'।
-आचार्य पूज्यपाद : सर्वार्थसिद्धि, 7/1 प्रतिज्ञा करके जो नियम लिया जाता है, वह व्रत है तथा यह करने योग्य है, यह नहीं करने योग्य है, इस प्रकार नियम करना व्रत है।
'व्रतं कोऽर्थः सर्वनिवृत्ति परिणामः।'
- परमात्मप्रकाश : ब्रह्मदेवसूरि कृत टीका 2/52/173/5 सर्वनिवृत्ति के परिणाम को व्रत कहते हैं।
'संकल्पपर्वकः सेव्ये नियमोऽशभकर्मणः।' निवृत्तिर्वा व्रतं स्याद्वा प्रवृत्तिः शुभकर्मणि ।।
- पण्डितप्रवर आशाधर-रचित सागारधर्मामृत 2/80 किसी पदार्थ के सेवन या अशुभ कर्म की निवृत्ति और शुभ कर्म में प्रवृत्ति व्रत है। स्वात्मना कृत्वा स्वात्मनिवर्तनं इति निश्चयव्रतम् ।।'
– परमात्म प्रकाश टीका-2/67/189/2 अपने आत्मा से अपने आत्मा में प्रवृत्ति करना निश्चय व्रत है। व्रत भंग नहीं करना चाहिए-अर्हन्त, सिद्ध और केवलि की सन्निधि में अथवा
364 :: जैनधर्म परिचय
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