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साफ कर देना चाहिए। वेदी की परिक्रमा कम से कम तीन बार अवश्य देना चाहिए। परिक्रमा समाप्त होने के साथ ही तीर्थंकर को एक बार नमस्कार करके ही मन्दिर से बाहर निकलना चाहिए।
जैनधर्मानुसार मूल में भावपूजा का ही प्रचलन रहा है। कालान्तर में द्रव्यरूपा का प्रचलन हुआ है। द्रव्यरूपा में आराध्य के स्थापन की परिकल्पना की जाती है और उसकी उपासना भी द्रव्य रूप में हुआ करती है। जैन दर्शन कर्म-प्रधान है। समग्र कर्म-कुल को यहाँ आठ भागों में विभाजित किया गया है। इन्हीं के आधार पर अष्ट द्रव्यों की कल्पना स्थिर हुई है। जैनधर्म में पूजा की सामग्री को अर्घ्य कहा गया है। पूजा-द्रव्य के सम्मिश्रण को अर्घ्य कहते हैं। जैनेतर लोक में इसे प्रभु के लिए भोग लगाना कहते हैं । वहाँ भोग सामग्री का प्रसाद रूप में सेवन किया जाता है, पर जिनवाणी में इसका भिन्न अभिप्राय है। जैन पूजा में अर्घ्य निर्माल्य होता है। वह तो जन्मजरादि कर्मों का क्षय करके मोक्ष-प्राप्ति के लिए शुभ संकल्प का प्रतीक होता है। अतएव अर्घ्य सर्वथा अखाद्य होता है। जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फल-इन अष्ट द्रव्यों का क्षेपण अलग-अलग अष्ट फलों की प्राप्ति के लिए शुभ संकल्प रूप है। लौकिक जगत में चन्दन एक वृक्ष है, जिसकी लकड़ी के लेपन का प्रयोग ऐहिक शीतलता के लिए किया जाता है। जैन दर्शन में चन्दन सांसारिक ताप को शीतल करने के अर्थ में प्रयुक्त है। सम्पूर्ण मोहरूपी अन्धकार को दूर करने के लिए परम शान्त वीतराग स्वभावयुक्त जिनेन्द्र भगवान की केशर-चन्दन से पूजा की जाती है। परिणामस्वरूप हार्दिक कठोरता, कोमलता और विनय-प्रियता में परिवर्तित होकर प्रकट हो। अक्षत शब्द अक्षय पद अर्थात् मोक्ष पद का प्रतीक है। अक्षत का शाब्दिक अर्थ है- वह तत्त्व, जिसकी क्षति न हो। अक्षत का क्षेपण कर भक्त अक्षय पद की प्राप्ति कर सकता है। पुष्प कामदेव का प्रतीक है। लोक में इसका प्रचूर प्रयोग देखा जाता है। जैन पद्धति में पुष्प समग्र ऐहिक वासनाओं के विसर्जन का प्रतीक है। नैवेद्य वह खाद्य पदार्थ है, जो देवता पर चढ़ाया जाता है। पूजा में क्षुधारोग को शान्त करने के लिए चढ़ाया गया मिष्ठान्न वस्तुत: नैवेद्य कहलाता है। मोहान्धकार को शान्त करने के लिए दीपरूपी ज्ञान का अर्घ्य आवश्यक है। धूप गन्ध द्रव्यों से मिश्रित एक द्रव्य विशेष है, यह सुगन्धित द्रव्य धूप शब्द का प्रतीकार्थ है तथा पूजा प्रसंग में अष्ट कर्मों का विनाशक माना गया है। फल का लौकिक अर्थ परिणाम है। जैन पूजा के प्रसंग में मोक्ष पद को प्राप्त करने के लिए क्षेपण किया गया द्रव्य वस्तुतः फल कहलाता है। ___जैनधर्म में गुणों की पूजा की गयी है। गुणों के ब्याज से ही व्यक्ति को भी स्मरण किया गया है, क्योंकि किसी कार्य का कर्ता यहाँ परकीय शक्ति को नहीं माना गया है। अपने-अपने कर्मानुसार प्रत्येक प्राणी स्वयं कर्ता और भोक्ता होता है। 'देव' शब्द का अर्थ दिव्य दृष्टि को प्राप्त करना है। जो दिव्य भाव से युक्त आठ सिद्धियों सहित
362 :: जैनधर्म परिचय
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