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जाता है और अक्षत वराटक अर्थात् कौड़ी या कमलगट्टा आदि में अपनी बुद्धि से यह अमुक देवता है, ऐसा संकल्प करके उच्चारण करना असद्भाव स्थापना पूजा कहलाती है। जलादि द्रव्य से प्रतिमादि द्रव्य की जो पूजा की जाती है, उसे द्रव्य पूजा कहते हैं, द्रव्य पूजा सचित, अचित तथा मिश्रभेद से तीन प्रकार की कही गयी है। प्रत्यक्ष उपस्थित जिनेन्द्र भगवान और गुरु आदि का यथायोग्य पूजन करना सचित पूजा है। तीर्थंकर आदि के शरीर की और कागज आदि पर लिपिबद्ध शास्त्र की जो पूजा की जाती है, वह अचित पूजा है और जो दोनों की पूजा की जाती है, वह मिश्र पूजा कहलाती है। जिनेन्द्र भगवान की जन्मकल्याणक भूमि, निष्क्रमण कल्याणक भूमि, केवलज्ञानोत्पत्ति स्थान,तीर्थ चिह्न स्थान और निषीधिका अर्थात् निर्वाणभूमियों में पूर्वोक्त प्रकार से पूजा करना वस्तुतः क्षेत्र-पूजा कहलाती है। जिस दिन तीर्थंकरों के पंचकल्याणकगर्भ, जन्म, तप, ज्ञान तथा निर्वाण हुए हैं, भगवान का अभिषेक कर नन्दीश्वर पर्व आदि पर्वो पर जिन महिमा करना काल पूजा कहलाती है। मन से अर्हन्तादि के गुणों का चिन्तवन करना भाव पूजा कहलाती है। भावपूजा में जो परमात्मा है, वह ही मैं हूँ तथा जो स्वानुभव गम्य मैं हूँ, वही परमात्मा है, इसलिए मैं ही मेरे द्वारा उपासना किये जाने योग्य हूँ, दूसरा कोई अन्य नहीं। इस प्रकार ही आराध्य-आराधक भाव की व्यवस्था है। __ आगम शास्त्र परम्परा के आधार पर पूजा का प्रचलन श्रमण-संस्कृति में आरम्भ से ही रहा है। श्रमण संस्कृति सिन्धु, मिस्र, बेवीलोन तथा रोम की संस्कृतियों से कहीं अधिक प्राचीन है। भागवतकार वेदव्यास ने आद्य मनु स्वायम्भुव के प्रपौत्र नाभि के पुत्र ऋषभ को दिगम्बर श्रमण और ऊर्ध्वगामी मुनियों के धर्म का आदि प्रतिष्ठाता माना है। उनके सौ पुत्रों में से नौ पुत्र श्रमण मुनि बने। मोहनजोदड़ो की खुदाई में कुछ ऐसी मोहरें प्राप्त हुई हैं, जिन पर योग मुद्रा में कुछ जैन मूर्तियाँ अंकित हैं। वहाँ पर एक मोहर ऐसी भी मिली है, जिस पर भगवान ऋषभदेव का चित्र खड़ी मुद्रा अर्थात् कायोत्सर्ग योगासन में चित्रित है। कायोत्सर्ग योगासन का उल्लेख वृषभ के सम्बन्ध में किया गया है। ये मूर्तियाँ पाँच हजार वर्ष पुरानी हैं । इससे प्रकट होता है कि सिन्धुघाटी के निवासी ऋषभदेव की भी पूजा करते थे और उस समय लोक में जैनधर्म भी प्रचलित था। फलक बारह और एक सौ अठारह आकृति सात मार्शल कृत मोहन जोदड़ो कायोत्सर्ग नामक योगासन में खड़े हुए देवताओं को सूचित करती है। यह मुद्रा जैन योगियों की तपश्चर्या में विशेष रूप से मिलती है, जैसे मथुरा संग्रहालय में स्थापित तीर्थंकर ऋषभदेव की मूर्ति में। ऋषभ का अर्थ है बैल, जो आदिनाथ का लक्षण है। मुहर संख्या एफ.जी.एच. फलक दो पर अंकित देवमूर्ति में एक बैल ही बना है, सम्भव है कि यह ऋषभ ही का पूर्व रूप हो। यदि ऐसा हो, तो शैवधर्म की तरह जैनधर्म का मूल भी ताम्र युगीन सिन्धु सभ्यता तक चला जाता है। इस प्रकार आज से पाँच
356 :: जैनधर्म परिचय
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