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देर पूजा करता है उतनी ही देर वीतराग भगवान के संसर्ग अथवा प्रसंग से अशुभ गतिविधि को शुभ किंवा प्रशस्त मार्ग में परिणत कर देता है। पूजा करने का मुख्य हेतु आत्मशुद्धि है । जिन्होंने आत्मशुद्धि करके या - तो मोक्ष प्राप्त कर लिया है या जो अर्हत अवस्था को प्राप्त हो गए हैं। आचार्य, उपाध्याय और साधु तथा जिन - प्रतिमा और जिनवाणी ये भी आत्मशुद्धि में प्रयोजक होने से उसके आलम्बन माने गये हैं। जब तक सराग अवस्था है, तब तक जीव के राग की उत्पत्ति होती ही है । यदि वह लौकिक प्रयोजन की सिद्धि के लिए होता है, तो उससे संसार की वृद्धि होती है, किन्तु अर्हन्त आदि स्वयं राग और द्वेष से रहित होते हैं। लौकिक प्रयोजन से उनकी पूजा की भी नहीं जाती है, इसलिए उनमें पूजा आदि के निमित्त से होने वाला राग मोक्षमार्ग का प्रयोजक होने से प्रशस्त माना गया है। भगवान जिनेन्द्र देव की भक्ति करने से पूर्व संचित सभी कर्मों का क्षय होता है। आचार्य के प्रसाद से विद्या और मन्त्र सिद्ध होते हैं। ये संसार से तारने के लिए नौका के समान हैं। अर्हन्त, वीतरागधर्म, द्वादशांग वाणी, आचार्य, उपाध्याय और साधु इनमें जो अनुराग करते हैं, उनका वह अनुराग प्रशस्त होता है । इनके अभिमुख होकर विनय और भक्ति करने से सब अर्थों की सिद्धि होती है। इसलिए भक्ति रागपूर्वक मानी गयी है किन्तु यह निदान नहीं है, क्योंकि निदान सकाम होता है और भक्ति निष्काम यही वस्तुतः दोनों में अन्तर है ।
जैन पूजा अनुष्ठान का अपना विशेष विधान होता है। जैन दर्शन भाव- प्रधान है। किसी भी कार्य सम्पादन के मूल में भाव और उसकी प्रक्रिया विषयक भूमिका वस्तुतः महत्त्वपूर्ण होती है। वास्तविकता यह है कि बिना भावना के किसी कार्य - सम्पादन की सम्भावना नहीं की जा सकती। इसी आधार पर पूजा करने से पूर्व पूजा करने का भाव संकल्प स्थिर करना परमावश्यक है । इसीलिए शौचादि से निवृत्त होकर भक्त अथवा पुजारी को मन्दिर के लिए प्रस्थान करने से पूर्व अपने हृदय में जिन-पूजन का शुभ भाव उत्थित करना होता है। पूजन का संकल्प लेकर भक्त द्वारा तीन बार ' णमोकार मन्त्र' का उच्चारण किया जाता है और तब उसका देवालय जाना आवश्यक होता है। जिनमन्दिर में प्रवेश करते ही पुनः तीन बार णमोकार मन्त्र का उच्चारण करना आवश्यक होता है और यदि घर पर स्नान न किया हो, तो उसे मन्दिर स्थित स्नानागार में जाकर शरीर-शुद्धि करना अपेक्षित है । छने हुए स्वच्छ जल से स्नान कर भक्त को मन्दिर जी में धुले हुए पवित्र वस्त्रों को धारण कर सामग्री कक्ष में प्रवेश करना चाहिए। पूजाविधान सामान्य रूप से दो भागों में विभाजित किया गया है— भाव पूजा और द्रव्य पूजा । भाव पूजा श्रमणग - साधुजनों अथवा ज्ञानवन्त श्रेष्ठ श्रावक द्वारा ही सम्पन्न किया जाना होता है। सरागी श्रावक के लिए द्रव्य पूजा करना आवश्यक होता है । द्रव्य पूजा करने के लिए पूजक को सामग्री सँजोनी पड़ती है । अक्षत, फलादि सामग्री को स्वच्छ
पूजा परम्परा :: 359
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