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हजार वर्ष पूर्व भगवान ऋषभ देवादि की पूजा करने का उल्लेख मिलता है। श्रमण संस्कृति में नमस्कार मन्त्र अनादिकालीन माना जाता है । इस मन्त्र में पंच परमेष्ठियों की वन्दना की गयी है पूजा का आदिम रूप णमो अर्थात् नमन, नमस्काररूप में मिलता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने 'समयसार' में 'वंदित्तु' द्वारा सिद्धों को नमस्कार किया है ।
इष्टदेव, शास्त्र और गुरु का गुण-स्तवन वस्तुतः पूजा कहलाता है । मिथ्यात्व, रागद्वेष आदि का अभाव कर पूर्णज्ञान तथा सुखी होना ही इष्ट है। उसकी प्राप्ति जिसे हो गयी, वही वस्तुतः इष्टदेव हो जाता है। अनन्त चतुष्टय-सुख, दर्शन, ज्ञान, वीर्यके धनी अर्हन्त और सिद्ध भगवान ही इष्टदेव हैं और वे ही परमपूज्य हैं। शास्त्र तो सच्चे देव की वाणी होती है और इसीलिए उसमें मिथ्यात्व राग-द्वेष आदि का अभाव रहता है। वह सच्चे सुख का मार्ग-दर्शक होने से सर्वथा पूज्य है । नग्न - दिगम्बर भावलिंगी गुरु भी उसी पथ के पथिक वीतरागी सन्त होने से पूज्य हैं। लौकिक दृष्टि से विद्यागुरु, माता-पिता आदि भी यथायोग्य आदरणीय एवं सम्माननीय हैं, परन्तु उनके राग-द्वेष आदि का पूर्णतः अभाव न होने से मोक्षमार्ग की महिमा नहीं है, अस्तु उन्हें पूज्य नहीं माना जा सकता । अष्टद्रव्य से पूजनीय तो वीतराग सर्वज्ञ देव, वीतरागी मार्ग के निरूपक शास्त्र तथा नग्न - दिगम्बर भाव-लिंगी गुरु ही हैं। ज्ञानी जीव लौकिक लाभ की दृष्टि से भगवान की आराधना नहीं करता है । उसमें तो सहज ही भगवान के प्रति भक्ति का भाव उत्पन्न होता है । जिस प्रकार धन चाहने वाले को धनवान की महिमा आये बिना नहीं रहती, उसी प्रकार वीतरागता के सच्चे उपासक अर्थात् मुक्ति के पथिक को मुक्तात्माओं के प्रति भक्ति का भाव आता ही है । ज्ञानी भक्त सांसारिक सुख की कामना नहीं करते, पर शुभभाव होने से उन्हें पुण्य-बन्ध अवश्य होता है और पुण्योदय के निमित्त से सांसारिक भोग- सामग्री भी उन्हें प्राप्त होती है, पर उनकी दृष्टि में उसका कोई मूल्य नहीं । पूजा - भक्ति का सच्चा लाभ तो विषय- कषाय से सर्वथा बचना है। श्रावक अथवा सुधी सामाजिक अर्थात् सद्गृहस्थ की दैनिक जीवन-चर्या आवश्यक षट्कर्मों से अनुप्राणित हुआ करती है। इन षट्कर्मों में देवपूजा, गुरुसेवा, स्वाध्याय, संयम, तप तथा दान श्रावक के दैनिक आवश्यक कर्तव्य में देवपूजा का स्थान सर्वोपरि है । राग प्रचुर होने से गृहस्थों के लिए जिनपूजा वस्तुतः प्रधानधर्म है। श्रद्धा और प्रेम तत्त्व के समीकरण से भक्ति का जन्म होता है। श्रद्धा-भक्ति एवं अनुराग के मिश्रण से पूजा की उत्पत्ति होती है। जिन जिनागम, तप तथा श्रुत में पारायण आचार्य में सद्भाव विशुद्धि से सम्पन्न अनुराग वस्तुतः भक्ति कहलाता है। पूजा के अन्तरंग में भक्ति की भूमिका प्रायः महत्त्वपूर्ण है । जैनधर्म का मेरुदण्ड ज्ञान है। ज्ञान प्राप्त करने के लिए भक्ति एक आवश्यक साधन है । भक्ति मन की वह निर्मल दशा है, जिसमें देव-तत्त्व का माधुर्य मन को अपनी ओर आकृष्ट करता है। जब अनुराग स्त्री विशेष के लिए न रहकर प्रेम, रूप और तृप्ति की समष्टि किसी दिव्य तत्त्व के लिए हो जाये, तो
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पूजा परम्परा :: 357
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