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क्रिया से वह वस्तु पूजनीय हो जाती है।
जैन परम्परा में प्रतिष्ठा के पर्याय के रूप में प्रतिष्ठान, प्रतिष्ठा, स्थापन, तत्प्रतिक्रिया इत्यादि पर्यायवाची नामों का प्रयोग है और उक्त स्थापना आदि में आत्मबुद्धि होने के कारण स्तवन आदि से उसमें अभेद माना गया है। कुल मिलाकर प्रतिष्ठा के मन्त्रों के द्वारा हम प्रतिष्ठित होने वाली बिम्ब वस्तु में सर्वज्ञपने की, तीर्थंकरत्व की, वीतरागभाव की निक्षेप के द्वारा स्थापना करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप वह वस्तुविशेष आत्मवस्तु के यथार्थ-ज्ञान की कारक बन जाती है।
जैन-परम्परा में मन्दिर-प्रतिष्ठा के अन्तर्गत बिम्ब-प्रतिष्ठा, वेदी-प्रतिष्ठा, शिखरप्रतिष्ठा, यन्त्र-प्रतिष्ठा और चरण-प्रतिष्ठा आदि का विधान है और इसकी सम्पूर्ण प्रक्रिया का उल्लेख प्रमुख रूप से प्रतिष्ठा पाठ, प्रतिष्ठा तिलक, प्रतिष्ठा सारोद्धार, प्रतिष्ठा चन्द्रिका, प्रतिष्ठा प्रदीप, प्रतिष्ठा रत्नाकर, प्रतिष्ठा पराग आदि ग्रन्थों में प्राप्त होता है। यद्यपि उक्त ग्रन्थों के पूर्व भी जैन परम्परा में जैन आचार-शास्त्र के मूल ग्रन्थों में प्रतिष्ठा सम्बन्धी उल्लेख मिलते हैं, परन्तु इन ग्रन्थों के द्वारा प्रतिष्ठा की प्रक्रिया को एक व्यवस्थित स्वरूप मिला है। जैन परम्परा में देवदर्शन एवं पूजा की परम्परा अनादिकालीन है, इसलिए ऐसी प्रतीति है कि प्रतिष्ठा की प्रक्रिया भी अनादिकालीन ही रही होगी। चूँकि सभी भारतीय धर्मों, दर्शनों की मूल प्रक्रिया वाचिक थी, इसलिए यह परम्परा भी आचार्यों के साथ बँधती हुई श्रुत के रूप में आगे चली होगी, जो उक्त ग्रन्थों में निगदित है।
इस स्थापना के प्रमुख रूप से दो भेद माने गये हैं-1. अतदाकार स्थापना; 2. तदाकार स्थापना। अतदाकार स्थापना में प्रतिष्ठेय का आकार-रूप न होने पर भी उसे उस रूप स्वीकार करना, जैसे-शतरंज के मोहरे, सामान्य (बेडोल) पाषाण में देवों की स्थापना, चावल आदि में भगवान् की स्थापना आदि एवं तदाकार स्थापना में प्रतिष्ठेय का आकार, बाह्य रूप उसी रूप में होना चाहिए, जैसा मूल रूप में भगवान् का था, पर इस प्रकार प्रतिमा की अवधारणा वस्तुत: तदाकार की स्थापना के रूप में जैन प्रतिष्ठा परम्परा में पल्लवित हुई है। यहाँ यह उद्धृत करना अतिरेक न होगा कि समस्त भारतीय धर्मों में प्राचीनतम प्रतिमाएँ जैन-परम्परा की प्राप्त हुई हैं। चूँकि वे प्रतिष्ठित होकर आराधना का अंग किसी न किसी काल में बनीं, इसीलिए हजारों वर्षों की लम्बी यात्रा कर आज भी हमें देश एवं विदेश में प्राप्त होती हैं। प्रतिष्ठा के पात्र और उनकी अर्हता
प्रतिष्ठा करने व कराने वालों की पात्रता के सम्बन्ध में भी जैन शास्त्रों में लम्बी चर्चा है। यदि पात्रता रखने वाला व्यक्ति प्रतिष्ठा कराता है, तो उसके परिणाम बड़े सकारात्मक होते हैं, जिसके परिणामस्वरूप प्रतिष्ठाकर्ता को अनेक लाभ होते हैं और
336 :: जैनधर्म परिचय
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