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एक सामान्य गृहस्थ त्याग और भोग- इन दोनों को समन्वयात्मक दृष्टि में रखकर आध्यात्मिक विकास में अग्रसर होता है। हम यहाँ श्रमण अर्थात् जैन साधुओं की आचार संहिता को समझेंगे।
श्रमणों की आचार-संहिता
संसार के समस्त भोगों को असार जान लेने के बाद,मनुष्य को जब जीवन के सत्य का अनुभव करने की तीव्र उत्कण्ठा होती है, तब वह भगवान् महावीर की तरह वैरागी होना चाहता है,उन्हीं की तरह अपने आत्मा की अनुभूति करना चाहता है। श्रमण होने का इच्छुक सर्वप्रथम बन्धुवर्ग से पूछता और विदा माँगता है। तब परिवार से विमुक्त होकर ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य इन पाँच आचारों को अंगीकार करता है और सभी प्रकार के परिग्रहों से मुक्त अपरिग्रही बनकर, स्नेह से रहित, शरीर संस्कार का सर्वथा के लिए त्याग कर आचार्य द्वारा 'यथाजात' (नग्न) रूप धारण कर जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्ररूपित धर्म को अपने साथ लेकर चलता है। मुनि के लिए श्वेताम्बर जैन परम्परा में दीक्षा के बाद निर्धारित सीमित वस्त्र-पात्र आदि का विधान है।
जिन मूलगुणों को धारण कर साधक श्रमणधर्म (आचरण मार्ग) स्वीकार करता है, उनका विवेचन आगे प्रस्तुत है।
मूलगुण
श्रमणाचार का प्रारम्भ मूलगुणों से होता है। आध्यात्मिक विकास के द्वारा मुक्ति प्राप्त करने के लिए व्यक्ति अपनी आचार-संहिता के अन्तर्गत जिन गुणों को धारण करके जीवन पर्यन्त पूर्ण निष्ठा से पालन करने का संकल्प ग्रहण करता है, उन गुणों को 'मूलगुण' कहा जाता है। वृक्ष की मूल (जड़ या बीज) की तरह ये गुण भी श्रमणाचार के लिये मूलाधार हैं। इसीलिए श्रमणों के प्रमुख या प्रधान आचरण होने से इनकी मूलगुण संज्ञा है। इन मूलगुणों की निर्धारित अट्ठाईस संख्या इस प्रकार है___पाँच महाव्रत-हिंसा विरति (अहिंसा), सत्य, अदत्तपरिवर्जन (अचौर्य), ब्रह्मचर्य और संगविमुक्ति (अपरिग्रह) पाँच समिति- ईर्या, भाषा, एषणा, निक्षेपादान और प्रतिष्ठापनिका। पाँच इन्द्रियनिग्रह- श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, जिह्वा और स्पर्श- इन पाँच इन्द्रियों का निग्रह । छह आवश्यक- समता (सामायिक), स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग)। सात अन्य मूलगुण- लोच (केशलोच), आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तघर्षण, स्थितभोजन और एकभक्त।
उपर्युक्त मूलगुण श्रमणधर्म की आधारशिला हैं। सम्पूर्ण मुनिधर्म इन अट्ठाईस मूलगुणों से सिद्ध होता है। इनमें लेषमात्र की न्यूनता साधक को श्रमणधर्म से च्युत बना देती है, क्योंकि श्रमण के लिए आत्मोत्कर्ष हेतु निरन्तर प्रयत्नशील रहना ही श्रेयस्कर होता है।
304 :: जैनधर्म परिचय
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