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3. तिर्यग्व्यतिक्रम- पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण, नैऋत्य, वायव्य, ईशान और आग्नेय दिशा विदिशाओं में जो क्षेत्र मर्यादा रखी है उसका अतिक्रमण हो जाना।
4. क्षेत्रवृद्धि- असावधानी से क्षेत्र की मर्यादा को एक दिशा के परिमाण का अमुक अंश दूसरे दिशा के परिमाण में मिला देना अर्थात् एक दिशा के लिए की गयी सीमा को कम करके दूसरी दिशा की सीमा में जोड़ लेना। यह क्षेत्र-मर्यादा की वृद्धि करना अतिचार है।
5. स्मृत्यन्तराधान- अनुस्मरण (निश्चित मर्यादा को भूल जाना) ही स्मृत्यन्तराधान है। कितनी ही बार मर्यादा का स्मरण न रहने से मर्यादा का भंग हो जाता है।
(ख) देशव्रत- निश्चित मर्यादा वाले ग्राम, नगर, घर, कोठा आदि के प्रदेशों को देश कहते हैं। दिग्व्रत में ली गयी जीवन-भर की मर्यादा के भीतर भी अपनी आवश्यकताओं एवं प्रयोजन के अनुसार आवागमन को सीमित समय के लिए औरअधिक नियन्त्रित रखना देशव्रत कहलाता है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा के अनुसार- जो श्रावक लोभ और काम को घटाने के लिए तथा पाप को छोड़ने के लिए वर्ष आदि की अथवा प्रतिदिन की मर्यादा करके, पहले दिग्व्रत में किए हुए दिशाओं के प्रमाण को, भोगोपभोग परिमाणव्रत में किए हुए इन्द्रियों के विषयों के परिमाण को और-भी-कम करता है, वह देशावकाशिक नाम का शिक्षाव्रत है। लाटीसंहिता के अनुसार-देशावकाशिक व्रत का विषय गमन करने का त्याग, भोजन करने का त्याग, मैथुन करने का त्याग अथवा मौन धारण करना आदि है।
दिग्वत एवं देशव्रत में अन्तर यह है कि दिग्विरति यावज्जीवन (सर्वकाल) के लिए होती है, जबकि देशव्रत शक्त्यनुसार नियत काल के लिए होता है। सीमाओं के परे स्थूल-सूक्ष्म-रूप पाँचों पापों का भले प्रकार त्याग हो जाने से देशावकाशिक व्रत के द्वारा भी महाव्रत साधे जाते हैं।
देशव्रत के पाँच अतिचार-आनयन, प्रेष्यप्रयोग, शब्दानुपात, रूपानुपात और पुद्गलक्षेप ये देशविरतिव्रत के पाँच अतिचार हैं,46- ऐसा आचार्य उमास्वामी ने कहा है। तत्त्वार्थवार्तिककार इन्हें इस प्रकार समझाते हैं
1. आनयन- सीमा के बाहर कार्यवश एवं लोभवश स्वयं न जाकर बाहर से कोई पदार्थ को मँगवाना आनयन-प्रयोग है।
2. प्रेष्यप्रयोग- व्यापार के निमित्त से स्वयं सीमा के बाहर न जाकर कोई माल वगैरह भेजना प्रेष्य-प्रयोग है।
3. शब्दानुपात- कोई लोभवश सीमा के बाहर न जाकर सीमा के पास खड़े होकर शब्द करना, आवाज देना आदि शब्दानुपात है।
4. रूपानुपात- सीमा का उल्लंघन न करने पर भी देशावकाशिक व्रती सीमा के
श्रावकाचार :: 325
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