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आदि का शोधन करना प्रमार्जन जानना चाहिए। उन प्रतिषेध विशिष्ट दोनों (अप्रत्यवेक्षित और अप्रमार्जित) का उत्सर्गादि प्रत्येक (उत्सर्ग, आदान, संस्तरोपक्रमण) के साथ सम्बन्ध करना चाहिए, जैसे अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्ग इत्यादि। प्रत्यवेक्षण और प्रमार्जन नहीं करना-अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जित है। बिना देखी और बिना शोधी हुई भूमि पर मलमूत्रादि करना-अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्ग है। बिना देखी और बिना शोधी हुई भूमि पर अर्हन्त या आचार्य की पूजा के उपकरण का रखना, उठाना तथा गन्ध, माला, धूपादि का और अपने परिधान (बिछौना) आदि का वस्त्र एवं पात्रादि पदार्थों का रखना, उठाना, ग्रहण करना आदि अप्रत्यवेक्षिता-प्रमार्जितादान है। बिना देखी अथवा बिना शोधी भूमि पर संथारा (बिछौना) आदि बिछाना अप्रत्यवेक्षिता प्रमार्जितसंस्तरोपक्रमण है। भूख-प्यास आदि के कारण आवश्यक क्रियाओं में उत्साह नहीं रखना अनादर है। रात्रि और दिन की क्रियाओं को प्रमाद की अधिकता से भूल जाना स्मृत्यनुपस्थान है।
3. भोगोपभोग परिमाण व्रत- भोजन, माला आदि एक ही बार उपयोग में आने योग्य वस्तु का भोग कहते हैं तथा वस्त्राभूषण अदि बार-बार भोगने में आने-योग्य वस्तुओं को उपभोग कहते हैं। भोग और उपभोग के साधनों को कुछ समय या जीवनपर्यन्त के लिए त्याग करना भोगोपभोगपरिमाणव्रत कहलाता है। यह भोगोपभोगपरिमाणवत व्यक्तिगत निराकुलता एवं सामाजिक सद्भाव दोनों दृष्टियों से उपयोगी है, क्योंकि इस व्रत के हो जाने पर अनावश्यक वस्तुओं का संग्रह/संचय और उपभोग बन्द हो जाता है। इससे श्रावक अनावश्यक खर्च और आकुलता से बच जाता है तथा एक जगह अनावश्यक वस्तुओं का संग्रह न होने से दूसरों के लिए वे वस्तुएँ सुलभ हो जाती हैं। अनावश्यक माँग न होने के कारण समाजवाद में यह व्यवस्था बहुत ही उपयोगी है कि व्यक्ति अपने उपयोग की वस्तु का ही सीमित मात्रा में संग्रह करे। किसी एक के पास अनावश्यक वस्तुओं का संग्रह होने से दूसरे उसके उपभोग से वंचित हो जाते
त्रसघात, बहुस्थावरघात, प्रमादकारक, अनिष्ट और अनुपसेव्य के त्याग रूप भेद से भोगोपभोगपरिमाणव्रत पाँच प्रकार का है। त्रस-घात की निवृत्ति के लिए मधुमाँस को हमेशा के लिए छोड़ देना चाहिए। केतकी के पुष्प, अर्जुन के पुष्प आदि बहुत जन्तुओं के उत्पत्ति-स्थान है तथा अदरख, हल्की, मूली, नीम के फूल आदि अनन्तकाय कहे जाने योग्य हैं अर्थात् इनमें अनन्त साधारण निगोदिया जीव रहते है। इनके सेवन से बहुविघात होता है, अतः इनका त्याग ही कल्याणकारी है। प्रमाद का नाश करने के लिए कार्याकार्य के विवेक को नष्ट करने वाली और मोह को करने वाली मदिरा का त्याग अवश्य करना चाहिए। यान, वाहन, हाथी, रथ, घोड़ा, अलंकार आदि में इतने मुझे इष्ट हैं, रखना हैं, अन्य अनिष्ट हैं' इस प्रकार विचार कर अनिष्ट से निवृत्ति करनी
श्रावकाचार :: 329
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