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है, ये पंच अतिचार अतिथिसंविभागवत के हैं।
उक्त पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत रूप बारह व्रतों का निर्दोष आचरण करते हुए आयु के अन्त में समाधिमरण धारण करने से सागार-धर्म की पूर्णता होती है; जैसा कि सागारधर्मामृत में कहा भी है- निर्मल सम्यक्त्व, निर्दोष अणुव्रत, गुणव्रत व शिक्षाव्रत एवं मरण के अन्त समय में सल्लेखना को धारण करना पूर्ण सागारधर्म है। आयु, इन्द्रिय, बल आदि प्राणों का ह्रास-रूपी क्षुद्र-मरण तो प्रति-समय होता रहता है, परन्तु अन्त समय में पर्याय परिवर्तन का जो मरण होता है, उसका नाम महामरण है, महामरण के समय सल्लेखना की साधना भद्र-साधक का कर्तव्य है।
सल्लेखना-'सल्लेखना' (सत्+लेखना) अर्थात् अच्छी तरह से काय और कषायों को कृश करने को सल्लेखना कहते हैं। निष्प्रतीकार उपसर्ग, दुर्भिक्ष, वृद्धपना अथवा रोग के आ जाने पर धर्म की रक्षा के लिए जो शरीर का त्याग किया जाता है, उसे आर्य पुरुषों ने सल्लेखना कहा है। इसे ही समाधिमरण भी कहते हैं। श्रीमद् उमास्वामी ने कहा है- मरणकाल समुपस्थित होने पर सभी प्रकार के विषाद को छोड़कर समतापूर्वक देह-त्याग करना ही समाधिमरण या सल्लेखना है।'
देह-त्याग की इस प्रक्रिया को नहीं समझ पाने के कारण कुछ लोग इसे आत्मघात कहते हैं, किन्तु सल्लेखना आत्म-घात नहीं है। आत्म-घात को तो जैनधर्म में पाप, हिंसा एवं आत्मा का अहितकारी कहा गया है। आत्म-घात कषायों से प्रेरित होकर किया जाता है, किन्तु सल्लेखना का मूलाधार समता है। आत्म-घाती को आत्मा की अविनश्वरता का भान नहीं होता, जबकि सल्लेखना का प्रमुख आधार आत्मा की अमरता को समझकर अपनी परलोक यात्रा को सुधारना है। सल्लेखना जीवन के अन्त समय में शरीर की अत्यधिक निर्बलता, अनुपयुक्तता, भार-भूतता अथवा मरण के किसी अन्य कारण के आने पर मृत्यु को अपरिहार्य मानकर की जाती है, जबकि आत्म-घात जीवन में किसी भी क्षण किया जा सकता है। आत्मघाती के परिणामों में दीनता, भीति और उदासी पायी जाती है, तो सल्लेखना में परम उत्साह, निर्भीकता और वीरता का सद्भाव पाया जाता है। आत्मघात विकृत चित्तवृत्ति का परिणाम है, तो सल्लेखना निर्विकारमानसिकता का फल है। आत्मघात में जहाँ मरने का लक्ष्य है, तो सल्लेखना का ध्येय मरण के योग्य परिस्थिति निर्मित होने पर अपने सद्गुणों की रक्षा का है, अपने जीवन के निर्माण का है।
सल्लेखना को साधना की अन्तिम क्रिया कहा गया है। अन्तिम क्रिया यानी मृत्यु के समय की क्रिया को सुधारना अर्थात् काय और कषाय को कृश करके संन्यास धारण करना-यही जीवन भर के तप का फल है। इसलिए प्रत्येक साधक को सल्लेखना अवश्य करनी चाहिए।
श्रावकाचार :: 331
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