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सल्लेखना की विधि- साधक को सर्वप्रथम अपने कुटुम्बियों, परिजनों एवं मित्रों से मोह, अपने शत्रुओं से बैर तथा सब प्रकार के बाह्य पदार्थों से ममत्व का शुद्ध मन से त्यागकर, मिष्ट वचनों के साथ अपने स्व-जनों एवं परिजनों से क्षमा याचना करनी चाहिए तथा अपनी ओर से भी उन्हें क्षमा करनी चाहिए। उसके बाद किसी योग्य गुरु के पास जाकर कृत-कारित अनुमोदन से किए गये सब प्रकार के पापों की छलरहित आलोचना कर, मरणपर्यन्त के लिए महाव्रतों को धारण करना चाहिए।
इस प्रकार ज्ञानपूर्वक कषायों को कृश करने के साथ वह अपनी काया को कृश करने के हेतु सर्वप्रथम स्थूल/ठोस आहार दाल-भात, रोटी-जैसे का त्याग करता है तथा दुग्ध, छाछ आदि पेय पदार्थों पर निर्भर रहने का अभ्यास बढ़ाता है। धीरे-धीरे जब दूध, छाछ आदि पर रहने का अभ्यास हो जाता है, तब वह उनका भी त्याग कर मात्र गर्म जल ग्रहण करता है। इस प्रकार चित्त की स्थिरतापूर्वक अपने उक्त अभ्यास और शक्ति को बढ़ाकर धीरजतापूर्वक, अन्त में उस जल का भी त्याग कर देता है और अपने व्रतों को निरतिचार पालन करते हुए 'पञ्च नमस्कार' मन्त्र का स्मरण करता हुआ शान्ति पूर्वक इस देह का त्यागकर परलोक को प्रयाण करता है।
सल्लेखना के अतिचार-जीने की आकांक्षा करना, मरने की आकांक्षा करना, मित्रों में अनुराग करना, पहले भोगे हुए भोगों का स्मरण करना और निदान-बन्ध करना ये पाँच सल्लेखनाव्रत के अतिचार हैं। यह शरीर अवश्य त्यागने योग्य है, जल के बबूले के समान अनित्य है- ऐसे इस शरीर की स्थिति किस प्रकार रखी जाए, कैसे यह बहुत काल तक टिका रहे इत्यादि रूप से शरीर के ठहरने की अभिलाषा जीविताशंसा है। रोगादि की तीव्र पीडा के कारण जीवन में संक्लेश होने पर मरण के प्रति चित्त का प्रणिधान होना मरणाशंसा है। बचपन के जो मित्र हैं, जिन्होंने आपत्ति में सहायता दी है और सुख-दुःख में सहयोगी बने हैं, उन मित्रों का स्मरण करना मित्रानुराग है।
'मैंने यह खाया, इस प्रकार के पलंग पर सोता था, इस प्रकार की क्रीड़ा करता था' इत्यादि पूर्व भुक्त क्रीड़ा, शयन, भोग आदि का स्मरण करना सुखानुबन्ध कहा जाता है। विषय सुखों की उत्कट अभिलाषा भोगाकांक्षा है। उस भोगाकांक्षा से जिसमें नियत रूप से चित्त दिया जाता है वह निदान है। इसप्रकार ये पाँच सल्लेखना व्रत के अतिचार हैं। जो एक बार अतिचार रहित होकर सल्लेखनापूर्वक मरण प्राप्त करता है, वह अतिशीघ्र मोक्ष को प्राप्त करता है। जैन शास्त्रों के अनुसार सल्लेखनापूर्वक मरण करने वाला साधक या तो उसी भव से मुक्त हो जाता है या एक या दो भव के अन्तराल से। ऐसा कहा जाता है कि सल्लेखनापूर्वक मरण होने से अधिक से अधिक सात-आठ भवों में तो मुक्ति हो ही जाती है इसीलिए जैनसाधना में सल्लेखना को इतना महत्त्व दिया जाता है तथा प्रत्येक साधक 'श्रावक
332 :: जैनधर्म परिचय
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