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कृत परीषह उपसर्ग को भी सहन करते हैं। मैं अशरणरूप, अशुभरूप, अनित्य, दुःखमय और पर-रूप संसार में निवास करता हूँ और मोक्ष इससे विपरीत है, इस प्रकार सामायिक
ध्यान करना चाहिए | जिनवाणी, जिनबिम्ब, जिनधर्म, पंचपरमेष्ठी तथा कृत्रिम और अकृत्रिम चैत्यालय का भी सामायिक में ध्यान किया जाता है। परिणामों में समताभाव की वृद्धि के लिए श्रावकों को शक्ति अनुसार सामायिक अवश्य करना चाहिए । सामायिकव्रत के पाँच अतिचार - श्रीमद् उमास्वामी ने कायदुष्प्रणिधान, वचनदुष्प्रणिधान, मनः दुष्प्रणिधान, अनादर, स्मृत्यनुपस्थान, – ये पाँच सामायिक व्रत के अतिचार बतलाए हैं po
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योगों का अन्यथा - प्रवर्तन योग - दुष्प्रणिधान है। क्रोधादिक कषायों के वश होकर शरीर के अवयवों का विचित्र विकृत रूप हो जाना कायदुष्प्रणिधान है। वर्णसंकर का अभाव तथा अर्थ के आगमत्व में चलना अर्थात् निरर्थक अशुद्ध वचनों का प्रयोग करना वाचनिक- दुष्प्रणिधान है। मन का अनर्पितत्व होना, अन्यथा होना, मन का उपयोग नहीं लगना मानसिक- दुष्प्रणिधान है । अनुत्साह को अनादर कहते हैं । कर्तव्य कर्म का जिसकिसी तरह निर्वाह करना अनादर या अनुत्साह है अर्थात् सामायिक के प्रति उत्साह नहीं होना ही अनादर है । चित्त की एकाग्रता न होना और मन में समाधिरूपता का न होना स्मृत्यनुपस्थान कहा जाता है
उपर्युक्त अतिचारों के कारण सामायिक व्रत का एकदेश भंग होता है, सर्वथा सामायिकव्रत का अभाव नहीं होता है । अभ्यास - दशा में जब सामायिक अतिचार - रहित होता है, तभी वह व्रती आगे की प्रतिमा को धारण करने के लिए योग्य होता है, इसलिए सामायिकव्रत की निर्दोषता के लिए व्रती सामायिक व्रत के पाँच अतिचारों का त्याग अवश्य करे । सामायिकव्रत में चित्त स्थिर करना सरल नहीं है, परन्तु नित्य प्रति अभ्यास करने से चित्त में एकाग्रता आती जाती है।
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2. प्रोषधोपवासव्रत - चारों ही प्रकार के आहारों का त्याग उपवास है। उपवास धारण के दिन एकभुक्ति अर्थात् सप्तमी और त्रयोदशी के दिन एक भुक्ति प्रोषध और पर्व दिन में, अष्टमी, चतुर्दशी का उपवास एवं पारणा के दिन अर्थात् नौमी और पूर्णिमा के दिन एक - भुक्ति इसका नाम प्रोषधोपवास है। महीने में दो अष्टमी और दो चतुर्दशी को उपवास, दो नौमी और पूर्णिमा, अमावस्या को एक- भुक्ति इसका नाम प्रोषधोपवास
है ।
प्रोषधोपवास व्रत के पाँच अतिचार - श्रीमद् उमास्वामी ने अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्ग, अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितादान, अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जित संस्तरोपक्रमण, अनादर और स्मृत्यनुपस्थान ये पाँच प्रोषधोपवास के अतिचार बतलाये हैं। जिनका वर्णन तत्त्वार्थवार्तिककार ने इस प्रकार किया है-चक्षु का व्यापार प्रत्यवेक्षण है, कोमल पिच्छिकादि उपकरण से भूमि 328 :: जैनधर्म परिचय
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