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है। वस्त्रों और बर्तनों आदि का प्रमाण निश्चित करके उसके प्रमाण का उल्लंघन करना कुप्यप्रमाणातिक्रम है। ये परिग्रहपरिमाणव्रत के पाँच अतिचार हैं।
उक्त अतिचार रहित पाँच अणुव्रत स्वरूप निधियाँ सौधर्म आदि स्वर्गों के सुख प्रदान करती हैं। स्वर्गों में अणिमा-महिमा आदि आठ सिद्धियाँ और सप्तधातुरहित दिव्यशरीर प्राप्त होते हैं। पाँच अणुव्रत के पालन से इहलोक और परलोक में समादर प्राप्त होता है।
गुणव्रत
अणुव्रत के विकास के लिए गुणव्रतों का विधान किया गया है। दिशापरिमाणव्रत (दिग्व्रत) देशव्रत, अनर्थदंडविरमणव्रत इन तीनों को गुणव्रत इसलिए कहा जाता है कि ये अणुव्रत रूपी मूल गुणों की रक्षा व उनका विकास करते हैं।” अणुव्रत यदि स्वर्ण के सदृश है, तो गुणव्रत उस स्वर्ण में चमक-दमक बढ़ाने के लिए पॉलिश-जैसे है। अणुव्रतों में शक्ति का संचार करने वाले गुणव्रत हैं। अणुव्रतों के पालन करने में जो कठिनाइयाँ हैं, उन कठिनाइयों को गुणव्रत दूर करते हैं। गुणव्रत द्वारा अणुव्रत की सीमा में रही हुई मर्यादा को और अधिक संकुचित किया जाता है। अणुव्रतों में सभी द्रव्यों, क्षेत्रों, काल, भावों से हिंसादि के द्वार खुले रहते हैं। उन द्वारों को अमुक द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से बन्द करने में गुणव्रत सहायक होते हैं। इसीलिए मूलगुण-रूप अणुव्रतों के पश्चात् गुणव्रतों का विधान किया गया है
(क) दिशापरिमाणव्रत : दुष्परिहार क्षुद्र जन्तुओं से भरी हुई दिशाओं से निवृत्ति दिग्विरति है। जिनका परिहार (बचाव) अशक्य है ऐसे क्षुद्र जन्तुओं से दिशाएँ व्याप्त हैं। अत: उन क्षुद्र जन्तुओं की रक्षा करने के लिए दशों दिशाओं में गमनागमन निवृत्ति को इस प्रकार परिभाषित किया है-मरणपर्यन्त सूक्ष्म पापों की विनिवृत्ति के लिए दशों दिशाओं का परिमाण करके इससे बाहर मैं नहीं जाऊँगा इस प्रकार संकल्प करना या निश्चय कर लेना सो दिग्वत या दिशापरिमाणवत है।”
दिशापरिमाणव्रत के अतिचार- जिसने दिग्परिमाणव्रत ग्रहण कर लिया है, उसे इस मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। दिशापरिमाण व्रत के पाँच अतिचार बताये हैं। वे इस प्रकार हैं- 1. ऊर्ध्वव्यतिक्रम, 2. अधोव्यतिक्रम, 3. तिर्यग्व्यतिक्रम, 4. क्षेत्रवृद्धि और 5. स्मृत्यन्तराधान ।
1. ऊर्ध्वव्यतिक्रम- ऊर्ध्वदिशा में गमनागमन के लिए जो क्षेत्र-मर्यादा निश्चित कर रखी है, उस क्षेत्र को अनजाने में उल्लंघन कर जाना।
2. अधोव्यतिक्रम- नीची दिशा में जो गमनागमन की क्षेत्र मर्यादा कर रखी है, उसका अज्ञात रूप से उल्लंघन हो जाना।
324 :: जैनधर्म परिचय
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