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हिंसा, 3. आरम्भी हिंसा, 4. उद्योगी हिंसा। संकल्पपूर्वक अर्थात् मैं इस प्राणी का वध करूँगा–ऐसा संकल्प कर जीव-हिंसा करना संकल्पी-हिंसा कहलाती है। अपने प्रति, धर्म के प्रति, साधर्मी बन्धु या भगिनिओं के प्रति अहंकारी पुरुष के द्वारा आक्रमण करने पर उसका प्रतीकार करना विरोधी हिंसा है। गृहस्थ किसी के प्रति आक्रमण न करे। दूसरे के द्वारा किए आक्रमण का प्रतिकार करे। __ क्योंकि विरोधी हिंसा गृहस्थाश्रम में त्याज्य नहीं है। इसी प्रकार तीसरी आरम्भी हिंसा का भी गृहस्थ त्यागी नहीं होता है, क्योंकि गृहस्थ को अपने निर्वाह के लिए कृषि आदि आरम्भ करना पड़ता है। चौथी हिंसा उद्योगी है, व्यापार, उद्योगादि करते समय, गृह कृत्यादि करते समय होने वाली हिंसा अपरिहार्य है। इसलिए गृहस्थ त्यागी नहीं होता है। केवल संकल्पपूर्वक वह त्रस जीवों की हिंसा से निवृत्त होता है, अत: स्थूल हिंसा का त्याग होने से अहिंसा अणुव्रती कहलाता है। ___ बहुत थोड़े शब्दों में जैनागम की हिंसा की व्याख्या की जाये, तो हम कह सकते हैं कि आत्मा में राग-द्वेषादि विकारी भावों को उत्पन्न नहीं होना अहिंसा है और आत्मा में उन राग-द्वेषादि संक्लेश परिणामों की उत्पत्ति होना ही हिंसा है। अहिंसा ही शिवपद को देती है, यही स्वर्ग की लक्ष्मी को देती है और यही अहिंसा आत्मा की हितकारी है तथा समस्त व्यसनों और कष्टों को दूर करती है। यह अकेली भगवती अहिंसा प्राणियों को जो सौख्य, कल्याण और मुक्ति प्रदान करती है, वह तप, शील, संयमादि का समुदाय भी नहीं दे सकता, क्योंकि तप, श्रुत, शील, संयम आदि सभी अंगों का आधार एकमात्र अहिंसा है।12
अहिंसाव्रत की भावनाएँ-अणुव्रत और महाव्रत के लिए आचार्य उमास्वामी ने समान भावनाओं का उल्लेख किया है, तदनुसार पूज्यपाद और भट्ट अकलंकदेव ने भी किया है। ये व्रतों की सामान्य भावनाएँ हैं। अतः एकदेश-चारित्र और सकलचारित्र (अणुव्रत और महाव्रत) के प्रतिपादन के पूर्व उनकी भावनाओं को समझ लेना अनिवार्य है। उन भावनाओं का वर्णन इस प्रकार है-अहिंसाव्रत की दृढ़ता एवं निर्मलता के लिए कुछ भावनाओं को भाना चाहिए, जिससे व्रत में विशुद्धि होती है। वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, आदाननिक्षेपणसमिति और आलोकितपानभोजन ये अहिंसाव्रत की पाँच भावनाएँ हैं। वचन को वश में करना वचनगुप्ति है। मन को वश में करना मनोगुप्ति है। चार हाथ जमीन देखकर चलना ईर्यासमिति है। भली प्रकार साधन व स्थानादि को देखकर पुस्तक आदि का उठाना और रखना आदाननिक्षेपणसमिति है। सूर्य के प्रकाश में अवलोकन करके अन्न-पानी ग्रहण करना आलोकितपानभोजनसमिति है। मन, वचन और काय-रूपी गुप्ति का पालन करना इसमें आवश्यक है, क्योंकि मन, वचन, काय की स्वच्छन्द प्रवृत्ति से ही इस आत्मा की हिंसादि में प्रवृत्ति होती है।
316 :: जैनधर्म परिचय
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