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विरुद्धराज्यातिक्रम है । शत्रु राज्यों के राजा के साथ मन्त्री, सेनापति आदि का संगठन होना यह भी विरुद्धराज्यातिक्रम है।
4. हीनाधिकमानोन्मान - क्रय-विक्रय प्रयोग में कूटप्रस्थ तराजू आदि को हीनाधिक रखना हीनाधिकमानोन्मान है अर्थात् प्रस्थादि मान कहलाते हैं और तराजू आदि उन्मान। दूसरों को देते समय कम वजन वाले से बाटों से देना और लेते समय अधिक वजन वाले बाटों का प्रयोग करना हीनाधिकमानोन्मान कहलाता है।
5. प्रतिरूपक व्यवहार - कृत्रिम सुवर्ण आदि के द्वारा वंचना - पूर्वक व्यवहार करना अर्थात् कृत्रिम वस्तुओं का असली वस्तु में मिलाकर दूसरों को ठगना प्रतिरूपक व्यवहार कहलाता है।” इन-सब से व्रत में दूषण लगने के कारण एकदेशभंग भी है, इसीलिए अतिचार कहलाता है।
इन अतिचारों को त्याग कर अचौर्याणुव्रत को निर्दोषपूर्वक पालन करना चाहिए । ब्रह्मचर्याणुव्रत–‘मैथुनमब्रह्म' (त. सूत्र 7 / 16 ) - मिथुन के कर्म को मैथुन कहते हैं । स्त्री-पुरुष के परस्पर शरीर के स्पर्श करने में जो राग- परिणाम है, वही मैथुन है, अर्थात् चारित्रमोहनीय कर्म का उदय होने पर स्त्री और पुरुष के परस्पर शरीर का सम्मिलन होने से सुख-प्राप्ति की इच्छा से होने वाला जो राग परिणाम है, वह मैथुन कहलाता है। यौनाचार के त्याग को ब्रह्मचर्य कहते हैं । गृहस्थ अपनी कमजोरीवश पूर्ण ब्रह्मचर्य ग्रहण नहीं कर पाता। उसके लिए विवाह का मार्ग खुला है। वह विवाह करके कौटुम्बिक जीवन में प्रवेश करता है । उसके विवाह का प्रमुख उद्देश्य धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थों का सेवन करना ही होता है। विवाह के बाद वह अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य सभी स्त्रियों को माता, बहिन और पुत्री की तरह समझता है तथा पत्नी अपने पति के सिवा अन्य सभी पुरुषों को पिता, भाई और पुत्र की तरह समझती हुई दोनों एक-दूसरे के साथ ही सन्तुष्ट रहते हैं । इसे ब्रह्मचर्याणुव्रत या स्वदारसन्तोषव्रत कहते हैं 128
ब्रह्मचर्यव्रत की पाँच भावनाएँ – स्त्रीरागकथा श्रवणवर्जन, तन्मनोहरांगनिरीक्षणत्याग (उनके मनोहर अंगों को देखने का त्याग), पूर्व में भोगे हुए विषयों के स्मरण का त्याग, उन्मादक भोजन का त्याग और स्वशरीर संस्कार का त्याग - ये ब्रह्मचर्य व्रत की पाँच भावनाएँ हैं । 29
जिन कथाओं को सुनने और पढ़ने आदि से स्त्रीविषयक अनुराग जाग्रत हो, ऐसी कथाओं के सुनने और पढ़ने आदि का त्याग करना स्त्रीरागकथाश्रवणत्याग है। स्त्रियों के मुख, आँख, कुच और कटि आदि सुन्दर अंगों को देखने से काम-भाव जाग्रत होता है, इसलिए व्रती को एक तो स्त्रियों के सम्पर्क से अपने को बचाना चाहिए। दूसरे यह तन्मनोहरांग-निरीक्षणत्याग है। गृहस्थ अवस्था में विविध प्रकार के भोग भोगे रहते
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श्रावकाचार :: 321