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की भावना रखना समिति है। ये पाँचों समितियाँ चारित्र के क्षेत्र में प्रवृत्तिपरक होती हैं। इन समितियों में प्रवृत्ति से सर्वत्र एवं सर्वदा गुणों की प्राप्ति तथा हिंसा आदि पापों से निवृत्ति होती है।
11-15. इन्द्रिय निग्रह
इन्द्र शब्द आत्मा का पर्यायवाची है। आत्मा के चिन्ह अर्थात् आत्मा के सद्भाव की सिद्धि में कारणभूत अथवा जो जीव के अर्थ-(पदार्थ) ज्ञान में निमित्त बने, उसे इन्द्रिय कहते हैं। इन्द्रियाँ पाँच हैं- श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, जिह्वा और स्पर्श । ये पाँचों इन्द्रियाँ अपनेअपने विषयों में प्रवृत्ति कराके आत्मा को राग-द्वेष युक्त करती हैं। अत: इनको विषयप्रवृत्ति की ओर से रोकना इन्द्रिय निग्रह है। ये पाँचों इन्द्रियाँ अपने नामों के अनुसार अपने नियत विषयों में प्रवृत्ति करती हैं। जैसे स्पर्शेन्द्रिय स्पर्श द्वारा पदार्थ को जानती है। रसनेन्द्रिय का विषय स्वाद, घ्राण का विषय गन्ध, चक्षु का विषय देखना तथा श्रोत्र का विषय सुनना है। इन्द्रियों के इन विषयों को दो भागों में विभाजित किया गया है -
(1) काम रूप विषय, तथा
(2) भोग रूप विषय। रस और स्पर्श कामरूप विषय हैं तथा गन्ध, रूप और शब्द भोग रूप विषय हैं। इन्हीं इन्द्रियों की स्वछन्द प्रवृत्ति का अवरोध निग्रह कहलाता है। अर्थात् इन इन्द्रियों को अपनेअपने विषयों की प्रवृत्ति से रोकना इन्द्रिय-निग्रह है। जैसे उन्मार्गगामी दुष्ट घोड़े को लगाम के द्वारा निग्रह किया जाता है, वैसे ही तत्त्वज्ञान की भावना (तप, ज्ञान और विनय) के द्वारा इन्द्रिय रूपी अश्वों का विषय रूपी उन्मार्ग से निग्रह किया जाता है, क्योंकि जिनकी इन्द्रियों की प्रवृत्ति सांसारिक क्षणिक विषयों की ओर है, वह आत्मतत्त्व रूपी अमृत कभी प्राप्त नहीं कर सकता। जो सारी इन्द्रियों की शक्ति को आत्मतत्त्व रूप अमृत के दर्शन में लगा देता है, वह सच्चे अर्थों में अमृतमय इन्द्रियजयी बन जाता है।
16-21. आवश्यक
जितेन्द्रिय व्यक्ति की अवश्यकरणीय क्रियाओं को आवश्यक कहते हैं। जो रागद्वेषादि के वश में नहीं उस (अवश) का आचरण या कर्म आवश्यक है। __ आवश्यक कर्म निम्नलिखित छह प्रकार के बताये गये हैं- जो श्रमण एवं श्रावक दोनों के लिये अनिवार्य हैं- 1. समता (सामायिक); 2. स्तव (चतुर्विंशति तीर्थंकर स्तव); 3. वन्दना; 4. प्रतिक्रमण-(प्रमादपूर्वक किये गये दोषों का निराकरण); 5. प्रत्याख्यान (आगामी कालीन दोषों का निराकरण); तथा 6. व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग)। इनका विवेचन आगम में नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-इन छह के आलम्बन से किया जाता है।
306 :: जैनधर्म परिचय
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