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5. तप-'कर्मक्षयार्थं तप्यते इति तपः' कर्मक्षय के लिए जो शरीर को तपाया जाता है, वह तप है । शक्ति अनुसार अनशन, ऊनोदर आदि बाह्य तप तथा प्रायश्चित, विनय आदि अन्तरंग तप धारण करना तप है। श्रावक अपने मन में मुनि-व्रत धारण करने का भाव रखता है और मुनि-व्रत तपश्चरण-प्रधान होता है । इसलिए अभ्यास के रूप में तपश्चरण करता हुआ गृहस्थ मुनि-व्रत धारण करने का अभ्यास करता है ।
6. दान - 'अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम्' (त.सू. 7/38) अर्थात् स्व और पर के उपकार के लिए अपने धन का त्याग करना दान है। इस तथ्य को और अधिक स्पष्ट करते हुए आचार्यों ने कहा है- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र से युक्त जीवों के लिए अपने वित्त का त्याग करने का नाम दान है। 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार ' में आहार, औषध, ज्ञान के साधन शास्त्रादिक उपकरण और वसतिका दान, इस तरह चार प्रकार का दान कहा है। दान के जितने भी प्रकार हैं, उन सब का अन्तर्भाव इनमें हो जाता है । यद्यपि दान एक है, फिर भी उनके फल में अन्तर देखा जाता है, जिसका मुख्य कारण विधि, द्रव्य, दाता और पात्र की विशेषता है। इनकी न्यूनाधिकता से दान के महत्त्व में न्यूनाधिकता आती है ।
विधि की विशेषता - पात्र का प्रतिग्रह - पड़गाहन करना, उच्चस्थान देना, उसके पाद प्रक्षालन करना, पात्र की पूजा करना, नमस्कार करना, मन-वचन और काय की शुद्धि रखना और अन्न-जल का शुद्ध होना, इस नवधा भक्ति को विधि-विशेष कहते हैं ।
द्रव्य की विशेषता - दिए जाने वाले अन्न आदि ग्रहण करने वाले साधुजनों के तप, स्वाध्याय के परिणामों की वृद्धिकारणभूतता है अथवा जो ग्रहण करने वाले के तप स्वाध्याय, ध्यान और परिणामों की शुद्धि आदि की वृद्धि का कारण हो, वह द्रव्यविशेष कहा जाता है ।
दाता की विशेषता - पात्र के प्रति ईर्ष्या का नहीं होना, त्याग में विषाद नहीं होना, देने की इच्छा करने वाले में अथवा जिसने दान दिया है, उन सब में प्रीति होना, कुशल अभिप्राय होना, प्रत्यक्ष फल की आकांक्षा नहीं करना, किसी से विसंवाद नहीं करना और निदान नहीं करना दातृविशेष है।
पात्र की विशेषता - मोक्ष में कारणभूत रत्नत्रय से जो युक्त है, वह पात्र - 1 - विशेष है। जैसे भूमि, बीज आदि कारणों में गुणवत्ता होने से फल- विशेष की प्राप्ति होती है, उसी प्रकार विधि-विशेष, दातृ - विशेष, पात्र - विशेष और द्रव्य - विशेष से दान के फल में विशेषता आती है।
व्रत
श्रावक का एकदेश संयम या विकलचारित्र सम्यग्दर्शन से विभूषित होने के पश्चात्
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श्रावकाचार :: 313