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उसमें लिखा है कि मद्य, मांस और मधु के त्याग के साथ पाँच अणुव्रतों को जिनेन्द्रदेव गृहस्थ के अष्ट मूलगुण कहते हैं । परवर्ती आचार्यों और विद्वानों ने मद्य, मांस, मधु और पंच उदुम्बर फलों के त्याग को अष्ट मूलगुण कहा है। इनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है
मद्यत्याग - अनेक वस्तुओं को सड़ाकर मदिरा बनाई जाती है, जिससे उसमें अनेक जीवों की उत्पत्ति हो जाती है, साथ ही उसके पीने से मनुष्य मतवाला होकर धर्मकर्म सब भूल जाता है। पागलों के समान चेष्टा करता है, इसलिए इसका त्याग आवश्यक है । भाँग, चरस, अफीम आदि नशैली वस्तुओं का सेवन भी इसी मद्य के अन्तर्गत आता है । अतः श्रावक को इन सभी का त्यागी होना चाहिए ।
मांस त्याग - स जीवों के घात से मांस की उत्पत्ति होती है, इसमें कच्ची और पक्की दोनों ही अवस्थाओं में उसी वर्ण के अनेक सम्मूर्च्छन जीव उत्पन्न होते रहते हैं। खाना तो दूर रहा स्पर्श से ही उन जीवों का विघात होता है, अतएव शास्त्रों में कहा गया है कि अहिंसा धर्म की रक्षा के लिए मांसभक्षण का त्याग करना चाहिए ।
मधुत्याग - मधुमक्खियों के मुख से निकली हुई लार ही मधुरूप में परिणत होती है। इसमें अनेक जीवों का निवास है। शास्त्रकारों ने तो यह लिखा है कि मधु की एक बूँद के खाने से उतना पाप होता है, जितना सात गाँवों के जलाने से होता है; इसका तात्पर्य यह है कि सात गाँवों में जितने स्थूल जीव रहते हैं; उतने सूक्ष्म जीव मधु की एक बूँद में रहते हैं । मधु बनाने वाले लोग उन सब जीवों का संहार करके ही मधु बनाते हैं, अतः विवेकी मनुष्य को इसका त्याग करना चाहिए ।
पंचोदुम्बरफल त्याग-बड़, पीपल, ऊमर, कठूमर और पाकड़ आदि इन पाँच उदुम्बर फलों के त्याग को पंच उदुम्बर फल त्याग कहते हैं । इन फलों में असंख्यात सजीवों की सत्ता होती है, अतः ये अभक्ष्य हैं । इनका त्याग करने से ही अष्ट मूलगुणों का प्रथमतः पालन हो जाता है । आचार्यों ने मूलगुणों में अणुव्रतों को ग्रहण किया है; जिनका वर्णन व्रत भेदों में किया जा रहा है, क्योंकि ये श्रावक के बारह भेदों में परिगणित हैं। पं. आशाधर जी अष्टमूलगुण में तीन मकार को पृथक्-पृथक् स्वीकार करते हुए पंचाणुव्रतों को एक मूलगुण मानकर देवदर्शन, रात्रिभोजन त्याग और जलगालन तथा पंच उदुम्बर फलों के त्याग को श्रावकों के मूलगुण स्वीकार करते हैं। मूलगुण के सम्यक्रूप से पालन करने वाले श्रावकों के कर्तव्यों पर भी आचार्यों ने विचार किया है, जो इस प्रकार है :
श्रावक के षडावश्यक - मूलगुण के सम्यक्रूप से पालन करने वाले श्रावक के जिन आवश्यक कार्यों का दिग्दर्शन आचार्यों ने कराया है, वे इस प्रकार हैं
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श्रावकाचार :: 311