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अपरिहार्य माना गया है, तथापि सहकारि निमित्त कारणों की उपेक्षा कथमपि सम्भव नहीं है। जैसे पूर्वोक्त 'मिट्टी का घड़ा' इस कार्य वस्तु में उपादान कारण मिट्टी का महत्त्व तो अपरिहार्य है ही, तथापि उसके अविनाभावि निमित्त कारणों के बिना मिट्टी रूप उपादान से घट कार्य की निष्पत्ति सम्भव नहीं हो सकती है। क्या कुम्भकार, दंड, चक्र आदि के बिना मिट्टी रूप उपादान घट बन सकता है ? ... नहीं, कदापि नहीं । इससे ज्ञात होता है कि जगत् में कोई भी कार्य अपने उपादान कारण या कारणों की परिणमनशीलता तथा निमित्त कारणों की सहकारिता से ही सम्पन्न होता है, उनके बिना नहीं। हाँ, यहाँ यह अवश्य जान लेना चाहिए कि किसी भी कार्य के होने में उसका उपादान कारण तो सर्वत्र सर्वदा ही नियत होता है, किन्तु निमित्त कारण एक - जैसे कार्यों के होने में अलग-अलग भी हो सकते हैं । उपादान योग्यता का परिपाक होने पर कार्य परिणत होता है, तो उस स्थिति में सायास या अनायास समुचित निमित्त कारणों का मिलना भी निश्चित ही होता है। एक कार्य के होने में अनेक निमित्त कारण होते हैं । निमित्त कारणों को जानने में मुख्य गौण व्यवहार की अपेक्षा भी जगत् में होती ही है ।
जो स्वयं तो कार्यरूप में न परिणमे, किन्तु उस पर यह आरोप आये कि इसके होने पर यह कार्य हुआ, तो उसे यह कार्य का निमित्तकारण कहते हैं । निमित्त कारणों को दो भागों में बाँटा जा सकता है- अन्तरंग निमित्तकारण और बहिरंग निमित्तकारण। इनमें अन्तरंग निमित्तकारण तो किसी कार्य विशेष की परिणति में अपरिहार्य, अपरिवर्तित और नियत होते हैं, किन्तु बहिरंग निमित्तकारण अपरिहार्य होकर भी परिवर्तित एवं अनियत माने जाते हैं। जैसे किसी संज्ञी पंचेन्द्रिय प्राणी में सम्यग्दर्शन होने का कार्य हुआ। यहाँ सम्यग्दर्शन रूप कार्य के होने में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक प्राणी, उसका श्रद्धा गुण एवं तदर्थ योग्यता सम्पन्न पर्याय क्रमशः अन्तरंग निमित्तकारण एवं उपादान कारण हैं। इसके बिना असंख्य निमित्त भी मिल जायें, जो दूसरों के सम्यग्दर्शन होने में निमित्त कारण बने हैं, तो भी सम्यग्दर्शन कार्य का होना सम्भव नहीं है । किन्तु जब उपादान योग्यता पकती है अर्थात् कार्य की भवितव्यता आ जाती है, तो कालआदिक उदासीन - निमित्त तथा देशना - दाता गुरु आदिक प्रेरक निमित्त मिलने पर ही सम्यग्दर्शन होता है ।
यहाँ सभी प्राणियों की अपेक्षा दर्शन मोहनीय कर्म का उपशम या क्षयोपशम या क्षय को अपरिहार्य अन्तरंग निमित्तकारण माना गया है। जिसके होने पर ही बाह्य देवदर्शन, धर्मश्रवण आदि सहकारि कारणों को भी निमित्त कारण माना जा सकता है । बाह्य सहकारि कारण तो मिल जाएँ, किन्तु अन्तरंग निमित्तकारण न हो तथा उसका
कारण-कार्य-विवेचन :: 299
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