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अविनाभावि उपादान कारण भी परिपक्व न हो, तो सम्यग्दर्शन नहीं होता है। बाह्य सहकारि कारणों की निमित्तता अन्तरंग निमित्तकारण के बिना अप्रभावी एवं अव्यवहार्य ही होती है। सचमुच में तो अन्तरंग कारण के बिना बाह्य सहकारि कारण निमित्त ही नहीं कहे जा सकते हैं और उपादान कारण के बिना इन निमित्त कारणों की कारणता कार्य सम्पादन में स्वीकृत ही नहीं हो सकती है, क्योंकि उपादान-कारण-शून्य कार्य शशशृंग (खरगोश के सींग) के समान ही माना जा सकता है।
जगत् में सांयोगिक एवं सृष्टि-मूलक कार्यों का समीचीन बोध निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धों के बलबूते पर ही सम्भव होता है, क्योंकि जगत् एवं तद्विषयक कार्यों की परिधि निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धों तक ही सीमित होती है। वहाँ निमित्त कारण और नैमित्तिक कार्य इन दोनों में परस्पर सह-क्रम-भाव नियम स्वरूप अविनाभाव सम्बन्ध घटित होता ही है। यहाँ नैमित्तिक वस्तु को कार्य और निमित्त वस्तु को कारण समझना चाहिए। दोनों ही वस्तुएँ अपनी-अपनी योग्यता से निमित्त एवं नैमित्तिक होती हैं। प्रत्येक वस्तु हर किसी वस्तु के लिए निमित्त नहीं हो सकती है और न ही कोई वस्तु हर किसी के लिए नैमित्तिक, अपितु प्रत्येक वस्तु में विद्यमान योग्यता से ही यह निश्चित होता है कि कौन वस्तु किस के लिए निमित्त या नैमित्तिक हो। ___जो कोई भी वस्तु है वह यदि अन्य किसी के परिणमन में अनुकूल या प्रतिकूल होने की योग्यता से आरोपित होती है, तो वह अनुकूल या प्रतिकूल निमित्त कहलाती है और जब स्वयं अपना परिणमन करती है, तो उपादान कहलाती है। इसी प्रकार जब भी हम किसी कार्य का आकलन निमित्त कारण स्वरूप पर-वस्तु से करते हैं, तो उसे नैमित्तिक कार्य कहा जाता है, परन्तु वह कार्य होता तो स्वयं ही है अपनी योग्यता से अपनी उपादान-कारण-स्वरूप वस्तु में ही।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनपरम्परा में दोनों ही उपादान और निमित्त कारणों का औचित्य अप्रतिहत बना रहता है तथा वस्तु-स्वातन्त्र्य का हनन हुए बिना ही जगत् एवं उसके कार्यों की समीचीन प्ररूपणा सम्भव हो जाती है।
300 :: जैनधर्म परिचय
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