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एक द्रव्य या गुण के परिणाम के रूप में नहीं किया जा सकता है, किन्तु ये कार्य अनेक द्रव्यों के विविध परिणामों की समष्टि के रूप में विर्वत अर्थात् अपनी विशिष्ट वर्तना के पर्याय-स्वरूप में पाये जाते हैं। जैन परम्परा में जीव की मनुष्य आदि तथा पुद्गल की स्कन्ध आदि विभाव-व्यञ्जन-पर्यायों को विवर्तवाद की परिधि में शामिल किया जा सकता है। धात्रा सृष्टिमकल्पयत्' के अनुसार मीमांसा एवं वेदान्त दर्शन में सृष्टि का कारण विधाता ब्रह्मा को माना जा सकता है। सांख्य योग दर्शन में सृष्टि पुरुष के लिए प्रकृति का परिणाम है। यद्यपि योगदर्शन ने अपने अष्टांग मार्ग की सफलता के लिए ईश्वर को भी आलम्बन स्वरूप कारण के रूप में स्वीकार कर लिया है। न्याय वैशेषिक दर्शन अपने परिवेश में कार्य-कारण की मीमांसा प्रस्तुत करते हैं। न्यायदर्शन ने ईश्वर को पहिले निमित्तकारण के रूप में प्ररूपित किया था, किन्तु कालान्तर में वहाँ ईश्वर को ही जगत् के सभी कार्यों का मूलकारण माना जाने लगा और जगत्स्रष्टा के रूप में उसकी प्रतिष्ठा हुई।
हर कार्य अपने कारण के होने पर ही होता है और कारण के अभाव में कोई भी कार्य नहीं होता है, इस सत्य को कोई भी नहीं नकारता है, तथापि कार्य-कारण की बात भारतीयदर्शन शास्त्रों में अपने स्वेष्ट तत्त्वों की सिद्धि के लिए यत्किंञ्चित् ही की गयी है। वैदिक पृष्ठभूमि वाले सभी दर्शनसम्प्रदायों में कार्यकारणवाद प्रायः न्यायदर्शन की प्ररूपणाओं से प्रभावित माना जा सकता है। यदि हमें कार्य-कारण की अवधारणा को सूक्ष्म एवं गम्भीर परिवेश में समझना है, तो दर्शनशास्त्रीय पटल पर न्यायवैशषिक दर्शन एवं जैनदर्शन शास्त्रों की प्ररूपणाओं पर अपना ध्यान केन्द्रित करना होगा और सत्यासत्य विवेक की कसौटी के रूप में वस्तु व्यवस्था को ही महत्त्व देना होगा।
समवायिकारण, असमवायिकारण और निमित्तकारण के रूप में न्यायदर्शन कारण को त्रिविध प्ररूपित करता है, जबकि जैनदर्शन ने कारण को मूलत: दो भेदों में विभाजित किया है-(1) उपादान कारण और (2) निमित्त कारण।
जैन दर्शन में उपादान कारण स्वभावमूलक तथा निमित्त कारण सहकारमूलक माने गये हैं। कोई भी कार्य इन की उपेक्षा करके अर्थात् इनकी अपेक्षा के बिना कतई नहीं होता है। कार्य के होने में इन दोनों की भूमिका आकलित होती ही है। किसी भी कार्य का उपादान कारण स्वकीय वस्तु में ही पाया जाता है, जबकि निमित्तकारण तो दूसरी वस्तुएँ भी होती हैं। ___ प्रत्येक वस्तु में सदैव पाया जाने वाला स्वभाव अपने-अपने कार्य का कालिक उपादान होता है, क्योंकि प्रत्येक कार्य में उसके अपने द्रव्यगत या वस्तुगत स्वभाव की ही अभिव्यक्ति होती है, तद्व्यतिरिक्त किसी अन्य द्रव्य के स्वभाव की नहीं।
कारण-कार्य-विवेचन :: 297
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