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सामना होता रहेगा और कार्य-कारण की सही अवधारणा असम्भव हो जाएगी।
सर्वसम्मत सत्य यह है कि कोई भी कार्य अकारण नहीं होता है। कार्य सत्तात्मक हो या परिणमनधर्मा; उसका वजूद कारण के बिना कतई नहीं माना जा सकता है। इसलिए कारण को स्वीकार करने में किसी को भी विप्रतिपत्ति नहीं है। प्रायः सभी दार्शनिकों ने कार्य के होने में मुख्य एवं सहकारी कारणों की भूमिका को स्वीकार किया ही है। किसी भी कार्य के होने में उसके मुख्य कारण की भूमिका तो अपरिहार्य ही होती है। कोई भी कार्य और उसका मुख्य कारण ये दोनों ही एक अव्यतिरिक्त वस्तु की योग्यता से ही सम्बन्धित रहते हैं। कार्यवस्तु से उसका मुख्य कारण सदैव अभिन्न ही होता है। सहकारी कारण अवश्य भिन्न भी हो सकते हैं। अन्यथा भारतीयदर्शन में प्रतिष्ठापित सत्कार्यवाद और असत्कार्यवाद की अवधारणाएँ निरर्थक हो जाएँगी। जबकि वे सर्वथा निरर्थक नहीं हैं।
सत्कार्यवाद कारण को कार्यवस्तु में सत् प्ररूपित करता है या कारण में ही कार्य को सत् मान लेता है। असत्कार्यवाद में यह स्वीकृति सम्भव नहीं है। चार्वाक्दर्शन में पृथिव्यादि चार भूतों की सत्ता और उनके कार्य सत्कार्यवाद की परिधि में स्वीकृत हो जाते हैं, किन्तु आत्मा की प्रादुर्भूति को वहाँ असत्कार्यवाद का ही परिणाम माना जा सकता है। बौद्धों द्वारा वस्तु को क्षणिक ही प्ररूपित करना भी कार्यवस्तु में कारण को अस्वीकारना ही है। यद्यपि बौद्ध कार्यसन्तति में संस्कार को कारण मानते हैं, तथापि वहाँ दोनों को क्षणवर्ती ही स्वीकार किया गया होने से कार्यवस्तु में कारण का या कारण में कार्य का होना सम्भव नहीं माना जा सकता है। अतः बौद्धों के यहाँ सत्कार्यवाद की धारणा असंगत सिद्ध होती है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि चार्वाक और बौद्ध ये दोनों दर्शन असत्कार्यवाद के द्योतक हैं। शेष भारतीय दर्शनों में जहाँ कार्यकारण की चिन्तना है, वहाँ सत्कार्यवाद की पुष्टि होती है।
सांख्यदर्शन में सत्कार्यवाद परिणामवाद के रूप में स्वीकृत है, तो वेदान्त में यह विवर्तवाद की परिधि में स्वीकृत हुआ है। सत्कार्यवाद की इन दोनों ही अवधारणाओं को जैनदार्शनिक परिप्रेक्ष्य में भी समझा जा सकता है; क्योंकि जैनदर्शन के अनुसार किसी भी वस्तु में जो भी कार्य परिणमता है, वह अपने गुणधर्म की योग्यता के अनुरूप ही परिणमित होता है, अन्यथा नहीं। यहाँ गुणों के स्वभावानुकूल परिणमन स्वरूप कार्यों में उनके गुण ही कारण हैं, जो गुणानुरूप सम्भवत्कार्यों में सत् ही रहते हैं तथा प्रत्येक कार्य भी अपने कारण में से तदनुरूप ही प्रगट होता है। अतएव प्रत्येक द्रव्य में परिणमित होते हुए परिणमनधर्मा सभी कार्य अपने गुणानुरूपता के कारण परिणामवाद के रूप में सत्कार्यवाद की परिधि में परिगणित किए जा सकते हैं।
इनके अलावा सृष्टिमूलक सारे ही सांयोगिक कार्य भी संयोगापन्न द्रव्यों की अपनी-अपनी योग्यता का उल्लंघन नहीं करते हैं। यहाँ इन कार्यों का परिगणन किसी
296 :: जैनधर्म परिचय
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