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• अनुभवगम्य ज्ञान सत्य पर आधारित होता है। ज्ञानेन्द्रियजन्य चेतना और धारणा
को मिलाने से सत्यता का पूर्ण ज्ञान हो सकता है। • जैन न तो धारणा का विरोध करते है और न ज्ञानेन्द्रियजन्य चेतना का। यानि कि विशेष और सार्वभौमिक एक दूसरे में समाहित हैं। इस प्रकार सत्य वाचिक सम्प्रेषण
और निर्णय के लिए बराबर का उत्तरदायी है। • पदार्थ, गुण और पर्याय के आपसी सम्बन्धों की सत्यता अध्यात्म का जटिल विषय
है। जैनियों का मुख्य विषय पदार्थ और गुण के आपसी सम्बन्ध मुख्य धारणा है। यह सम्बन्ध ही है जो संसार में क्रमबद्धता और संयोग लाता है। पूर्वी और पाश्चात्य दार्शनिक इस सम्बन्ध को नकारते हैं। जैनियों के अनुसार अनुभव को नकारने से सन्देह उत्पन्न होता है। यदि हम अपने अनुभवों के प्रमाण पर विश्वास करें तो सम्बन्धों की वैधता को नकारने की कोई सम्भावना नहीं बनती
है।
• अनेकान्तवादी विचारधारा के अनुसार सत्य अनन्त बहुतायत और धारणाओं की
समानता है। सत्य एक ही वस्तु की एकता व अनेकता में निहित है और इसमें निहित सत्य न केवल पूर्ण समानता में है और न पूर्ण भिन्नता में। वरन् इन दोनों से भिन्न
• बहुत से पहलू और पर्यायों का एक हो जाना ही सत्य है, या जब एकता व विभिन्नता एक हो जाते हैं तब सत्य सामने आता है। इसीलिए पदार्थ और उसके
गुण तथा पर्यायों के बीच सम्बन्धों का अध्ययन जैनियों की मूल विचारधारा है। • आधुनिक भौतिकी की यह मूल अनुभूति है कि कोई भी सिद्धान्त कभी भी सत्य
के सभी पहलुओं की व्याख्या नहीं करता और इसीलिए यह कभी वास्तविक स्थिति की पूर्ण विवेचना नहीं करता, क्योंकि यह प्रायोगिक तथ्यों के एकीकरण
पर निर्भर है। • भौतिकविदों की तरह जैन दार्शनिक भी मानते हैं कि भौतिक विश्व मूलरूप से
अन्तःसम्बन्धित, अन्योन्याश्रित और अभिन्न है। अर्थात् यह पूर्णतया अन्तःसम्बन्धित व्यवस्था है। इसके पूर्णत: अन्तःसम्बन्धित होने के कारण किसी super human observer द्वारा एक all-embrassing (सबको समाहित करने वाले) अनुभव द्वारा समझा जा सकता है। वास्तव में हमारे अनुभव अपूर्ण होते हैं, क्योंकि वे अलग-अलग होते हैं। इसलिए हमारे तथ्य कुछ घटनाओं के कुछ आँकड़ों को जोड़ने के प्रयास होते हैं, जो कभीकभी पूर्ण मुक्त संरचना तक नहीं ले जा पाते हैं। ये विरोधाभासी भी हो सकते
है
अनेकान्त :: 177
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