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होते हुए सम्यग्दर्शन का तो नाश कर दिया है, किन्तु मिथ्यादर्शन को प्राप्त नहीं हुआ है । जीव की इस अवस्था को सासादन गुणस्थान कहते हैं ।
सासादन पद के साथ सम्यक्त्व पद का प्रयोग भूतपूर्व न्याय की अपेक्षा हुआ है। इस का काल अन्तर्मुहूर्त मात्र है, काल पूरा होने पर नियम से मिथ्यादृष्टि होता है । 3. मिश्र-(सम्यक्मिथ्यादृष्टि) - जिस गुणस्थान में जीव के सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदयवश समीचीन और मिथ्या उभय रूप श्रद्धा युगपत् होती है, उसकी उस श्रद्धा को मिश्र गुणस्थान कहते हैं । जिसप्रकार दही और गुड़ के मिलाने पर उनका मिला हुआ परिणाम (स्वाद) युगपत् अनुभव में आता है, उसी प्रकार ऐसी श्रद्धा वाले जीव के समीचीन और मिथ्या उभय रूप श्रद्धा होती है । यहाँ अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय नहीं है। इस गुणस्थान का काल भी अन्तर्मुहूर्त है।
इस गुणस्थान से सीधे देशविरत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान की प्राप्ति नहीं होती तथा यहाँ पर-भव-सम्बन्धी आयु का बन्ध व मरण तथा मारणान्तिक समुद्घात भी नहीं होता है ।
4. अविरत सम्यक्त्व या असंयतसम्यग्दृष्टि - निश्चय सम्यग्दर्शन से सहित और निश्चय व्रत (अणुव्रत और महाव्रत) से रहित अवस्था ही अविरत सम्यक्त्व नामक चतुर्थगुणस्थान कहलाता है
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जीव को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण लब्धि तथा चतुर्थगुणस्थान के योग्य बाह्य आचार से सम्पन्न होने पर, दर्शन मोहनीय एवं अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क के उपशमादिरूप अभाव के होने पर, स्वपुरुषार्थ द्वारा स्वभाव सन्मुख होने पर आत्मानुभूति पूर्वक होती है, अर्थात् यह अपने आत्मा का सच्चा स्वरूप समझता है कि "मैं तो त्रिकाल एकरूप रहने वाला ज्ञायक परमात्मा हूँ, मैं ज्ञाता हूँ, अन्य ज्ञेय हैं, पर के साथ मेरा कोई सम्बन्ध है ही नहीं । अनेक प्रकार के विका भाव जो पर्याय में होते हैं, वे भी मेरा स्वरूप नहीं हैं। ज्ञाता स्वभाव की दृष्टि एवं लीनता करते ही वे नाश को प्राप्त हो जाते हैं अर्थात् उत्पन्न ही नहीं होते ।" इस प्रकार निर्णयपूर्वक दृष्टि स्वसन्मुख होकर निर्विकल्प आनन्दरूप परिणति का साक्षात् अनुभव करती है, तथा निर्विकल्प अनुभव के छूट जाने पर भी मिथ्यात्व व अनन्तानुबन्धी कषायों के अभावस्वरूप आत्मा की शुद्ध परिणति निरन्तर बनी रहती है । उस को अविरत सम्यक्त्व नामक चतुर्थ गुणस्थान कहते हैं ।
इसके तीन भेद होते हैं -
1. औपशमिक, 2. क्षायोपशमिक, 3. क्षायिक |
इन तीन प्रकार के सम्यग्दर्शन में से किसी एक सम्यग्दर्शन के साथ जब तक इस जीव के अप्रत्याख्यानावरण आदि क्रोध, मान, माया और लोभ के उदयवश अविरतिरूप परिणाम बना रहता है, तब तक अविरत सम्यक्त्व नाम का चतुर्थ गुणस्थान रहता है।
कर्म सिद्धान्त, गुणस्थान एवं लेश्या :: 287
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