________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
होने वाले सूक्ष्म लोभ नामक साम्पराय कषाय का पूर्ण रूप से उपशमन या क्षपण होता है, अन्तर्मुहर्त काल तक प्रत्येक समय में अनन्तगुणी आत्म विशुद्धि को लिए हुए एक समय में एक ही (नियत विशुद्धि वाला) परिणाम होता है और जिनके निरन्तर कर्म प्रकृतियों के उपशमन और क्षपण होता रहता है। उनके उस गुणस्थान की सूक्ष्म साम्पराय संज्ञा है।
11. उपशान्तकषाय-उपशम श्रेणी की स्थिति में दशम गुणस्थान में चारित्र मोह का पूर्ण उपशम करने से उपशान्त मोह या उपशान्त कषाय गुणस्थान होता है। मोह पूर्ण उपशमित हो जाता है, पर अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् मोहोदय आ जाने से नियमतः इस गुणस्थान से पतन होता है। क्षपक श्रेणी वाले जीव इस गुणस्थान में नहीं आते हैं, मात्र उपशम श्रेणी वाले ही 11वें गुणस्थान में आते हैं।
12. क्षीणमोह-मोहकर्म का आत्यन्तिक क्षय सम्पादित करते हुए दशम गुणस्थान में अवशिष्ट लोभांश का भी क्षय होने से स्फटिक मणि के पात्र में रखे हुए स्वच्छ जल के समान परिणामों की पूर्ण निर्मलता क्षीणमोह गुणस्थान है। इसका काल भी अन्तर्मुहूर्त ही है। इसमें पूर्ण वीतरागता के साथ छद्मस्थपना पाये जाने से इसे क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ भी कहते हैं । यथाख्यातचारित्र के धारक मुनिराज को मोहनीय कर्म का तो अत्यन्त क्षय होता है, और शेष तीन घातिया कर्मों का क्षयोपशम रहता है, अन्तर्मुहूर्त में ही उनका क्षय करके तेरहवाँ गुणस्थान प्राप्त करते हैं। यह गुणस्थान क्षपक श्रेणी में ही होता है। ___ 13. सयोग केवली जिन-जिन जीवों का केवलज्ञान रूपी सूर्य की किरणों के समूह से अज्ञान अन्धकार सर्वथा नष्ट हो चुका है और जिन्हें नौ केवललब्धियाँ (क्षायिक सम्यक्त्व, चारित्र, ज्ञान, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य) प्रकट होने से परमात्म संज्ञा प्राप्त हुई है; वे जीव इन्द्रिय और आलोक आदि की अपेक्षा से रहित, असहाय ज्ञान-दर्शन युक्त होने से 'केवली', योग युक्त होने से 'सयोग' और द्रव्यभाव उभय रूप घाति कर्मों पर विजय प्राप्त करने के कारण 'जिन' कहलाते हैं।
इस गुणस्थान में योग का कम्पन होने से एक समय मात्र की स्थिति का साता वेदनीय का ईर्यापथ आस्रव होता है, लेकिन कषाय का सम्पूर्ण अभाव होने से बन्ध नहीं होता।
14. अयोगकेवली जिन-इस गुणस्थान में स्थित अर्हन्त भगवान मन-वचन-काय के योगों से रहित और केवलज्ञान सहित होने से, इस गुणस्थान की संज्ञा अयोगकेवली जिन है। इस गुणस्थान का काल ह्रस्व अ, इ, उ, ऋ, ल स्वरों के उच्चारण करने के बरावर है। इस गुणस्थान के अन्तिम दो समय में अघाति कर्मों की सर्व प्रकृतियों का भी क्षय करके ये भगवान सिद्धपने को प्राप्त होते हैं। व्युपरतक्रियानिवर्ति नामक शुक्ल ध्यान के बल से सत्ता में स्थित 85 प्रकृतियों का क्षय भी इसी गुणस्थान में होता है।
290 :: जैनधर्म परिचय
For Private And Personal Use Only