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घात नहीं होता। __छठे गुणस्थान में (यथोचित शुद्ध परिणति सहित) सविकल्पता और सातवें गुणस्थान में निर्विकल्पता होती है तथा दोनों का काल अन्तर्मुहूर्त ही होता है। अत: मुनिराज बारम्बार सविकल्प से निर्विकल्प एवं निर्विकल्प से सविकल्प दशा में परिवर्तित होते रहते हैं।
7. अप्रमत्त संयत-जो भावलिंगी मुनिराज पूर्वोक्त 15 प्रमादों से रहित हैं, अनन्तानुबन्धी आदि 12 कषायों से रहित तो हैं ही, साथ ही संज्वलन कषायों तथा नोकषायों की तीव्रता न होकर सप्तम गुणस्थान योग्य मन्दता होती है एवं मूलगुण, उत्तरगुणों की सहज निरतिचार परिणति बनी रहती है, इसलिए इनकी अप्रमत्त संज्ञा है। बुद्धिपूर्वक विकल्पों का अभाव होता है। निर्विकल्प आत्मा के अनुभव रूप ध्यान ही वर्तता है। इस गुणस्थान के दो भेद हैं-1. स्वस्थान अप्रमत्तसंयत, 2. सातिशय अप्रमत्तसंयत। __ जो संयत क्षपक या उपशम श्रेणी पर आरोहण न कर निरन्तर एक-एक अन्तर्मुहूर्त में अप्रमत्त भाव से प्रमत्त भाव को और प्रमत्त भाव से अप्रमत्त भाव को प्राप्त होते रहते हैं, उनके उस गुण की स्वस्थान अप्रमत्त संज्ञा है।
उपर्युक्त मुनिराज उग्र पुरुषार्थपूर्वक आत्मरमणता विशेष बढ़ जाने पर, श्रेणी आरोहण के सन्मुख होकर अध:प्रवृत्तकरण रूप विशुद्धि को प्राप्त होते हैं, उनके उस गुण की सातिशय अप्रमत्त संज्ञा है। ___पंचमकाल में हीन पुरुषार्थ, हीन संहनन इत्यादि के कारण सातिशय अप्रमत्त दशा का पुरुषार्थ इस काल में नहीं हो पाता है।
8. अपूर्वकरण-जिस गुणस्थान में आत्मविशुद्धि की अपूर्वता है अर्थात् पूर्व में इस प्रकार की विशुद्धि का अनुभव नहीं हुआ है। यहाँ प्रत्येक जीव के परिणाम में प्रत्येक समय अनन्तगुणी विशुद्धि होती जाती है। भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा उपरितन समयवर्ती जीव के परिणाम अधस्तन समयवर्ती जीव के परिणामों से सदा विसदृश ही होते हैं, अपूर्व ही होते हैं और अभिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम सदृश भी हो सकते हैं तथा विसदृश भी होते हैं।
श्रेणी आरोहण के इस प्रारम्भिक गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त है।
9. अनिवृत्तिकरण-आत्मस्थिरता की प्रतिसमय विशुद्धता बढ़ती होती है, फलतः समसमयवर्ती जीवों के परिणाम सदृश एवं भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम विसदृश ही होते हैं। इस गुणस्थान में संज्वलन चतुष्क के उदय की मन्दता के कारण निर्मल हुई परिणति से क्रोध, मान, माया एवं वेद का समूल नाश हो जाता है। इस गुणस्थान का काल भी अन्तर्मुहूर्त ही है।
10. सूक्ष्मसाम्पराय-जिन जीवों के सूक्ष्म भाव को प्राप्त साम्पराय अर्थात् अबुद्धिपूर्वक
कर्म सिद्धान्त, गुणस्थान एवं लेश्या :: 289
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