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लेश्या
कषाय से अनुरंजित जीव की मन-वचन-काय की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। पंचसंग्रहो' (पञ्चसंग्रह) प्राकृतग्रन्थ में लेश्या का स्वरूप इस प्रकार उल्लिखित है
लिप्पइ अप्पीकीरइ एयाए णियय पुण्ण पावं च। जीवोत्ति होइ लेसा लेसा गुण जाणयक्खाया।। 142 । जह गेरुवेण कुड्डो लिप्पई लेवेण आमपिट्टेण।
तह परिणामो लिप्पइ सुहासुहा यत्ति लेवेण ।। 143 ।। अर्थात् जिसके द्वारा जीव पुण्य-पाप से अपने को लिप्त करता है, उनके अधीन करता है, उसको लेश्या कहते हैं। जिस प्रकार आमपिष्ट (दाल की पिट्टी या तैलादि) से मिश्रित गेरू मिट्टी के लेप द्वारा दीवार रँगी जाती है, उसी प्रकार शुभ और अशुभ भाव रूप लेप के द्वारा जो आत्मा का परिणाम लिप्त किया जाता है, उसको लेश्या कहते हैं।
लेश्या द्रव्य और भाव रूप से दो प्रकार की कही गयी है।
शरीर नाम कर्मोदय से उत्पन्न द्रव्य लेश्या होती है और कषाय से अनुरंजित जीव की योग रूप प्रवृत्ति भाव लेश्या है।
लेश्या
द्रव्य
भाव
कृष्ण नील कापोत पीत पद्म शुक्ल
उक्त लेश्याओं में कृष्ण, नील व कापोत लेश्याएँ अशुभ परिणाम रूप होती हैं और पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याएँ तारतम्यरूप से शुभ परिणामों वाली होती हैं।
(1) कृष्ण लेश्या के लक्षण-जो स्वयं धर्म क्रिया पालता नहीं, दूसरों को पालने देता नहीं, तीव्र क्रोध करने वाला हो, वैर को न छोड़े, लड़ना जिसका स्वभाव हो, धर्म और दया से रहित हो, जो किसी के वश को प्राप्त न हो, स्वच्छन्द हो, वर्तमान कार्य करने में विवेक रहित हो, कला-चातुर्य से रहित हो, पंचेन्द्रिय विषयों में लम्पट हो, मानी, मायावी, आलसी व भीरु हो, दुराग्रही हो, उपदेश की अवमानना करता हो, ताप-हिंसा-असन्तोष आदि परम तामस भाव सहित होना कृष्ण लेश्या के लक्षण
292 :: जैनधर्म परिचय
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