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जो इस प्रकार हैं
(अ) क्षायिक ज्ञान — आत्मा के ज्ञान गुण का घात करने वाला ज्ञानावरण कर्म है । इस कर्म का तपादि के द्वारा सम्पूर्ण घात हो जाने से आत्मा में क्षायिक ज्ञान भाव उत्पन्न होता है, जिससे आत्मा लोक तथा अलोक के समस्त द्रव्यों को तथा उनकी त्रिकालवर्ती अनन्त पर्यायों को एक-साथ स्पष्ट जानने लगता है। यह अर्हन्त भगवान् के होता है। इसे केवलज्ञान या अनन्तज्ञान भी कहते हैं ।
(आ) क्षायिक दर्शन - आत्मा के दर्शन गुण का घात करने वाला दर्शनावरण कर्म है । इस कर्म के सम्पूर्ण घात हो जाने से आत्मा में क्षायिक दर्शन भाव प्रकट हो जाता है, जिससे आत्मा लोकालोक के समस्त द्रव्यों का सामान्य अवलोकन करने में समर्थ हो जाता है । यह भी अर्हन्त भगवान् के होता है। इसे केवलदर्शन या अनन्तदर्शन भी कहते हैं ।
(इ) क्षायिक दान - अन्तराय कर्म का एक भेद - दानान्तराय कर्म का नाश होने से आत्मा में क्षायिक- दान- भाव प्रकट होता है । इसके प्रभाव से अर्हन्त भगवान् का समस्त जीवों के लिए परम हितकारी अहिंसामय धर्मोपदेश होता है। सभी जीवों को इससे परम अभय रूप अभय दान प्राप्त होता है।
(ई) क्षायिक लाभ - लाभान्तराय कर्म के सम्पूर्ण क्षय होने से आत्मा में क्षायिकलाभ- भाव उत्पन्न होता है। इसके कारण अर्हन्त भगवान् के असाधारण, अत्यन्त शुभ, दिव्य, नोकर्मवर्गणाएँ आने से, उनका परमौदारिक शरीर कुछ-कम कोटिपूर्व-वर्ष तक कवलाहार के बिना भी स्थित रहता है ।
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(3) क्षायिक भोग - सम्पूर्ण भोगान्तरायकर्म के क्षय होने से आत्मा में क्षायिकभोग-भाव उत्पन्न होता है, जिससे अरहन्त भगवान् के पुष्यवृष्टि, विहार में स्वर्णकमल रचना आदि अतिशय होते हैं ।
(ऊ) क्षायिक उपभोग - सम्पूर्ण उपभोगान्तराय कर्म का क्षय हो जाने से आत्मा में क्षायिक उपभोग-भाव होता है । इसके कारण अर्हन्त भगवान् के दिव्य सिंहासन, चमर, तीन छत्र, भामंडल आदि क्षायिक उपभोग होते हैं।
(ए) क्षायिक वीर्य - आत्मा की शक्ति पर रोक लगाने वाले वीर्यान्तराय कर्म का सम्पूर्ण नाश हो जाने से क्षायिक वीर्य भाव प्रकट होता है, जिससे अर्हन्त भगवान् को अनन्त पदार्थों को जानने की शक्ति रूप अनन्तवीर्य प्राप्त होता है ।
(ऐ) क्षायिक सम्यक्त्व - सम्यक्त्व की घातक मोहनीय की तीन तथा अनन्तानुबन्धी क्रोधादि चार कषायों के सर्वथा क्षय होने से आत्मा में क्षायिक सम्यक्त्व भाव उत्पन्न होता है । इस भाव की उत्पत्ति चतुर्थ गुणस्थान से सप्तम गुणस्थान तक के जीवों के सम्भव है। यह सम्यक्त्व पूर्ण-निर्मल तथा अक्षय-अनन्त है । कभी नष्ट नहीं होता। इस भाव वाले जीव चारों गतियों में पाये जाते हैं ।
(ओ) क्षायिक चारित्र - सम्यक् चारित्र की घातक 21 कषायों के सर्वथा क्षय होने
औपशमिक आदि जीव के भाव :: 265
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