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रूप सम्बन्ध को बन्ध कहते हैं। 2. बन्ध को प्राप्त कर्म प्रदेशों की स्थिति और अनुभाग को बढ़ाना उत्कर्षण है। 3. कर्म प्रदेशों की स्थिति और अनुभाग की हानि को अर्थात् जो पहले बाँधा था,
उससे कम करने को अपकर्षण कहते हैं। 4. जो प्रकृति पूर्व में बँधी थी, उसका सजातीय अन्य प्रकृति रूप परिणमन होना
संक्रमण है। 5. अपक्व पाचन का नाम उदीरणा है अर्थात् अपने नियतकाल से पूर्व ही पूर्वबद्ध
कर्मों का फलोन्मुख हो जाना उदीरणा है। 6. कर्म बन्ध के पश्चात् फल देने के प्रथम समय तक उसका सत्ता में रहना सत्त्व
कहलाता है। 7. अपनी सत्ता में विद्यमान कर्म जब अपनी स्थिति को पूरा कर फल देने लगता
है, तब उसे कर्मों का उदय कहते हैं। 8. आत्मा में कर्मों की निजशक्ति का कारणवश प्रकट न होना उपशम है। जैसे फिटकरी डाल देने से मैले पानी का मैल नीचे बैठ जाता है और जल निर्मल हो जाता है। वैसे ही परिणामों की विशुद्धि से कर्मों की शक्ति का प्रकट न
होना उपशम है। यह उपशमकरण केवल मोहनीय कर्म में ही होता है। 9. कर्मों को उदय में आने से तथा अन्य प्रकृति रूप संक्रमण करने में समर्थ न
होना ही निधत्ति है। 10. कर्म का उदीरणा, उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण का न हो पाना निकाचित है।
कर्मों की इन अनेक दशाओं के साथ-साथ कर्म का स्वामी, कर्मों की स्थिति, कब कौन कर्म बँधता है? किसका उदय होता है, किस कर्म की सत्ता रहती है, किस कर्म का क्षय होता है ? इत्यादि विस्तृत वर्णन जानने के लिए 'गोम्मटसार' आदि ग्रन्थ अवलोकनीय हैं।
गुणस्थान
मोह और मन, वचन, काय की प्रवृत्ति के निमित्त से उत्पन्न जीव के अन्तरंग परिणामों की तरतमता अर्थात् प्रतिक्षण होने वाला उतार-चढ़ाव गुणस्थान है। गुणस्थान आत्मिक गुणों के विकास की क्रमिक अवस्थाओं का नाम है। जीव के परिणाम सदा एक से नहीं रहते, उनमें मोह व मन-वचन-काय की प्रवृत्ति के कारण प्रतिक्षण उतार-चढ़ाव होता रहता है। इन प्रत्येक अवस्थाओं का बोध गुणस्थान द्वारा होता है। गुणस्थानों से जीव के मोह-निर्मोह, संसार-मोक्ष, बन्ध-अबन्ध दशाओं का परिचय प्राप्त होता है। ___ यद्यपि जीव स्वयं अपने ज्ञान, दर्शन, सुख, बल आदि अनन्त गुणों का अधिपति सदैव है, किन्तु मात्र अनादि अज्ञान भाव से अपने स्वभाव से अपरिचित रहा और इस
284 :: जैनधर्म परिचय
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