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चिपके रहना उस पर लगी गोंद आदि गीली वस्तुओं की चिपकाहट की कमी-अधिकता पर निर्भर है। यदि दीवार पर पानी पड़ा हो, तो उसपर लगी हुई धूल जल्दी झड़ जाती है। यदि किसी पेड़ का दूध लगा हो, तो कुछ देर में झड़ती है और यदि कोई गोंद लगी हो, तो बहुत दिनों में झड़ती है। सारांश यह है कि चिपकाने वाली चीज का असर दूर होते ही चिपकने वाली चीज स्वयं झड़ जाती है। यही बात योग और कषाय के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। योगशक्ति जिस दर्जे की होती है, आने वाले कर्मपरमाणुओं की संख्या भी उसी के अनुसार कम या अधिक होती है। यदि योग उत्कृष्ट होता है, तो कर्मपरमाणु भी अधिक मात्रा में जीव की ओर आते हैं। यदि योग जघन्य होता है, तो कर्म परमाणु कम मात्रा में जीव की ओर आते हैं। इसी तरह यदि कषाय (राग-द्वेष-मोह) तीव्र होती है, तो कर्मपरमाणु भी जीव के साथ बहुत समय तक बँधे रहते हैं व तीव्र फल देते हैं। यदि कषाय हल्की होती है, तो कर्म-परमाणु जीव के साथ कम समय के लिए बँधते हैं और फल भी कम देते हैं। यह एक साधारण नियम है, किन्तु उसमें कुछ अपवाद भी हैं।
इस प्रकार योग और कषाय से जीव के साथ कर्म-पुद्गलों का बन्ध होता है। कर्मों में अनेक प्रकार का स्वभाव पड़ना तथा उनकी संख्या में कमी या अधिकता योग पर निर्भर है तथा उनमें जीव के साथ कम या अधिक काल तक ठहरने की शक्ति और तीव्र या मन्द फल देने की शक्ति होना कषाय पर निर्भर है। इस तरह प्रकृति और प्रदेश बन्ध तो योग से होते हैं और स्थितिबन्ध तथा अनुभाग बन्ध कषाय से होते
___ इनमें से प्रकृति बन्ध के आठ भेद हैं-(1) ज्ञानावरण, (2) दर्शनावरण, (3) वेदनीय, (4) मोहनीय, (5) आयु, (6) नाम, (7) गोत्र, और (8) अन्तराय। (1) ज्ञानावरण नाम का कर्म जीव के ज्ञानगुण के घातने में निमित्त होता है। इसी की वजह से कोई अल्पज्ञानी या कोई विशेषज्ञानी दिखाई देता है। (2) दर्शनावरण कर्म जीव के दर्शन गुण को घातने में निमित्त होता है। आवरण ढाँकने वाली वस्तु को कहते हैं। ये दोनों कर्म ज्ञान और दर्शन गुण को ढाँकने में निमित्त होते हैं। (3) वेदनीय कर्म सुख-दु:ख के वेदन-अनुभवन में निमित्त होता है। (4) मोहनीय कर्म जीव को मोहित होने में निमित्त होता है। इसके दो भेद हैं-एक, जिसके होने पर जीव को अपना भान ही नहीं हो पाता, वह दर्शन मोहनीय और दूसरा, जो सच्चे स्वरूप का भान होने पर भी स्वरूप स्थिर होने में बाधक होता है, वह चारित्र मोहनीय। (5) आयु कर्मजो अमुक समय तक जीव को किसी एक शरीर में रोके रहने में निमित्त होता है। इसके नष्ट हो जाने पर जीव की मृत्यु हुई, ऐसा कहा जाता है। (6) नाम कर्मजिसकी निमित्तता में अच्छे या बुरे शरीर के अंग-उपांग वगैरह की रचना होती है। (7) गोत्र कर्म-जिसके निमित्त से जीव उच्च या नीच कुल वाला कहलाता है। (8)
282 :: जैनधर्म परिचय
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