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अन्तराय कर्म-जिसके निमित्त से इच्छित वस्तु की प्राप्ति में या पुरुषार्थ में बाधा पैदा होती है।
इन आठ कर्मों में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय व अन्तराय ये चार कर्म तो घाति कर्म कहे जाते हैं; क्योंकि ये चारों जीव के स्वाभाविक गुणों को घातने में निमित्त होते हैं। शेष चार कर्म अघाति कहे जाते हैं, वे जीव के गुणों का घात नहीं किन्तु संयोगों के मिलाने में निमित्त होते हैं। ___'गोम्मटसार कर्मकाण्ड' में आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने इन कर्मों की प्रकृति को समझने के लिए उपमाएँ प्रयुक्त की हैं
ज्ञानावरण कर्म की उपमा पर्दे से दी है। जैसे पर्दे से ढकी चीज का ज्ञान नहीं होता, वैसे ही ज्ञानावरण के उदय में पदार्थों का ज्ञान नहीं हो पाता। दर्शनावरण की उपमा द्वारपाल से दी है। जैसे कोई व्यक्ति राजमहल आदि देखना चाहता है, किन्तु द्वारपाल रोक देता है। वेदनीय की उपमा शहद लपेटी तलवार से दी है, चाटने पर मीठा लगता है, किन्तु जीभ कट जाती है, ऐसा ही सुख-दुःख देना वेदनीय का स्वभाव है। मोहनीय कर्म की उपमा मद्य से दी है जैसे मद्य पीकर मनुष्य अपने होश में नहीं रहता, उसी प्रकार की स्थिति मोह के उदय में संसारी जीव की होती है। आयु कर्म की उपमा पैरों में पड़ी बेड़ी से दी है, जैसे पैर बँध जाने पर मनुष्य एक ही स्थान पर पड़ा रहता है, वैसे ही आयु कर्म जीव को अमुक भव में रोके रहता है, उसके उदय रहते मृत्यु नहीं होती। नामकर्म की उपमा चित्रकार से दी गयी है, जैसे चित्रकार अनेक प्रकार के चित्र बनाता है, वैसे ही नाम कर्म अनेक प्रकार के शरीर आदि की रचना करता है। गोत्रकर्म की उपमा कुम्हार से दी गयी है जैसे कुम्हार छोटे-बड़े बर्तन बनाता है, वैसे ही गोत्रकर्म ऊँचा-नीचा या छोटा-बड़ा व्यवहार कराता है। अन्तराय की उपमा भण्डारी से की गयी है। जैसे राजा तो किसी को कुछ देना चाहता है, किन्तु भण्डारी मना कर देता है, वैसे ही अन्तराय कर्म के उदय में जीव को इच्छित वस्तु का लाभ नहीं होता। देने वाले की इच्छा होने पर भी दे नहीं पाता और लेने वाला ले नहीं पाता। अन्तराय कर्म जीव की अनन्त शक्ति का प्रच्छादक है।
इस प्रकार कर्म के आठ मूल भेद हैं, किन्तु इनकी उत्तर प्रकृतियाँ 148 हैं। जिनका विवरण कर्म सिद्धान्त विषयक ग्रन्थों में देखा जा सकता है।
कर्मों की 10 विविध अवस्थाएँ
जैन सिद्धान्त में कर्मों की मुख्य दस अवस्थाएँ बतलाई गयी हैं, जिन्हें 'करण' कहते हैं। उनके नाम हैं-बन्ध, उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, उदीरणा, सत्त्व, उदय, उपशम, निधत्ति और निकाचित।। __ 1. सर्वप्रथम बन्धकरण होता है। जीव के साथ कर्म पुद्गलों के एक क्षेत्रावगाह
कर्म सिद्धान्त, गुणस्थान एवं लेश्या :: 283
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