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या वे कर्म ही स्वयं फल देने की सामर्थ्य रखते हैं। इस विषय पर विचार करते हैं
ईश्वर को जगत का नियन्ता मानने वाले वैदिक दर्शन जीव को कर्म करने में तो स्वतन्त्र किन्तु उसका फल भोगने में परतन्त्र मानते हैं। उनके मत से कर्म का फल ईश्वर देता है, और वह प्राणियों के अच्छे या बुरे कर्म के अनुरूप ही अच्छा या बुरा फल देता है किन्तु जैनदर्शन के अनुसार कर्म अपना फल स्वयं देता है। इसके लिए किसी न्यायाधीश की आवश्यकता नहीं है। जैसे शराब पीने से नशा होता है और दूध पीने से पुष्टि होती है। शराब या दूध पीने के बाद उसका फल देने के लिए किसी दूसरे शक्तिमान नियामक की आवश्यकता नहीं होती। उसी तरह जीव की प्रत्येक कायिक, वाचिक और मानसिक प्रवृत्ति के साथ जो कर्म-परमाणु जीवात्मा की ओर आकृष्ट होते हैं और राग-द्वेष का निमित्त पाकर उस जीव से बँध जाते हैं, उन कर्म परमाणुओं में भी शराब और दूध की तरह अशुभ या शुभ प्रभाव डालने की शक्ति रहती है, जो चैतन्य के सम्बन्ध से व्यक्त होकर जीव पर अपना प्रभाव डालती है। उसके प्रभाव से मुग्ध हुआ जीव ऐसे काम करता है जो दु:खदायक या सुखदायक प्रतीत होते हैं। यदि कर्म करते समय जीव के भाव शुभ होते हैं, तो बँधने वाले परमाणु पुण्य रूप होते हैं और उनका फल अच्छा प्रतीत होता है तथा यदि भाव बुरे, अशुभ होते हैं, तो बँधने वाले परमाणु पाप रूप होते हैं। कालान्तर में उनका फल भी बुरा या पाप रूप प्रतीत होता है। ___ जैनदर्शन में कर्म से मतलब जीव की प्रत्येक क्रिया के साथ जीव की ओर आकृष्ट होने वाले कर्म-परमाणुओं से है। वे कर्म-परमाणु जीव की प्रत्येक क्रिया के साथ जिसे जैनदर्शन में योग के नाम से कहा गया है, जीव की ओर आकृष्ट होते हैं और आत्मा के राग-द्वेष-मोह आदि भावों का, जिन्हें कषाय नाम से अभिहित किया गया है, निमित्त पाकर जीव से बँध जाते हैं। इस तरह कर्म परमाणुओं को जीव तक लाने का काम जीव की योग-शक्ति करती है। सारांश यह है कि जीव की योगशक्ति और कषाय ही बन्ध का कारण हैं। कषाय के नष्ट हो जाने पर योग के रहने तक जीव में कर्म परमाणुओं का आस्रव/आगमन तो होता है, किन्तु कषाय के न होने के कारण वे ठहर नहीं सकते। उदाहरण के लिए योग को वायु की, कषाय को गोंद की, जीव को एक दीवार की, और कर्मपरमाणुओं को धूल की उपमा देकर समझ सकते हैं। यदि दीवार पर गोंद लगा हो, तो वायु के साथ उड़कर आने वाली धूल दीवार से चिपक जाती है, किन्तु यदि दीवार साफ चिकनी और सूखी होती है, तो धूल दीवार पर न चिपक कर तुरन्त झड़ जाती है।
यहाँ धूल का कम या ज्यादा परिमाण में उड़कर आना वायु के वेग पर निर्भर है। यदि वायु तेज होती है, तो धूल भी ज्यादा उड़ती है और यदि वायु धीमी होती है, तो धूल भी कम उड़ती है तथा दीवार पर धूल का थोड़े या अधिक दिनों तक
कर्म सिद्धान्त, गुणस्थान एवं लेश्या :: 281
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