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वह यहाँ प्रासंगिक नहीं है। भाव लेश्या का सम्बन्ध जीव के परिणामों से है। इसी का यहाँ प्रसंग है। अयोग-केवली के अलावा कोई भी संसारी जीव लेश्या-भाव से रहित नहीं होता
___5. पारिणामिक-भाव- आत्मा के जो परिणाम कर्मों के उपशम, क्षय, क्षयोपशम तथा उदय की अपेक्षा न रखते हुए स्वभाव से होते हैं, उन्हें पारिणामिक भाव कहते हैं। इसके तीन भेद हैं
(अ) जीवत्व भाव- चैतन्य परिणाम को जीवत्व भाव कहते हैं। सुख-दुःख का ज्ञान, हित का उद्यम और अहित का भय, ये चैतन्य के विशेष हैं। सभी संसारी एवं मुक्त जीवों में यह भाव पाया जाता है।।
(आ) भव्यत्व भाव- जिसमें सम्यग्दर्शनादि भाव प्रकट होने की योग्यता है, वह भव्यत्व भाव कहलाता है।
(इ) अभव्यत्व भाव- जो भविष्य काल में कभी भी सम्यग्दर्शनादि भाव- रूप परिणमन नहीं करेंगे अर्थात् जिनमें इनको व्यक्त करने की शक्ति का अभाव है, वे अभव्यत्व-भाव युक्त जीव हैं।
भव्यत्व-भाव-युक्त जीव तीन प्रकार के होते हैं -
(1) आसन्न अथवा निकट-भव्य- जो जीव शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करेंगे। वे आसन्न या निकट भव्य जीव हैं।
(2) दूर-भव्य- जो जीव आगे कभी मोक्ष प्राप्त करेंगे। वे दूर-भव्य जीव हैं।
(3) अभव्य-सम भव्य (दूरानुदूर भव्य)- जिन जीवों में शक्ति रूप से तो मोक्ष प्राप्ति सम्भव होती है, अत: जो भव्य तो हैं, परन्तु उसकी व्यक्ति कभी नहीं हो पाने के कारण अभव्य-सम भव्य हैं।
ये तीनों प्रकार के पारिणामिक भाव वाले जीव चारों गतियों में पाये जाते हैं। इनसे रहित कोई भी जीव नहीं होता। प्रत्येक जीव में जीवत्व भाव तो होता ही है। शेष दो भावों में से एक भाव होता है अर्थात् प्रत्येक जीव में या तो भव्यत्व भाव पाया जाता है या अभव्यत्व भाव पाया जाता है। मुक्त जीवों में मात्र जीवत्व-भाव पाया जाता है। सभी अभव्य जीवों में मात्र प्रथम मिथ्यात्व-गुणस्थान ही होता है।
जीव के उपर्युक्त भावों के सम्बन्ध में निम्न बातों का ज्ञान भी आवश्यक है
(1) तत्त्वार्थ सूत्र 215 के अन्त में जो 'च' शब्द दिया है, उसमें संज्ञित्व- भाव, सम्यमिथ्यात्व भाव तथा योग आदि को गर्भित मानना चाहिए अर्थात् ये भी क्षायोपशमिकभाव हैं।
(2) तत्त्वार्थ सूत्र 2/7 के अन्त में जो 'च' शब्द दिया है, उसमें अस्तित्व, वस्तुत्व, कर्तृत्व आदि का भी अन्तर्भाव मानना चाहिए अर्थात् ये भी पारिणामिक-भाव हैं।
(3) संख्या की अपेक्षा सब-से-कम संख्या औपशमिक भाव वाले जीवों की है। ये
औपशमिक आदि जीव के भाव :: 269
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