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संसार में रुलते रहें या संयम का निमित्त मिलने पर मोक्षमार्ग में प्रगति करके संसार को पार कर लें, परन्तु अशुद्ध जीव यदि अभव्य नहीं है तो, कारण पाकर अशुद्ध से शुद्ध हो सकता है। शुद्ध जीव फिर कभी अशुद्ध नहीं होगा।
जीव में अनन्त शक्तियाँ हैं। उसमें स्व-पर विज्ञान, स्व को तथा पर को जानने की सामर्थ्य या चेतना गुण नाम की स्व-पर प्रकाशक ऐसी विलक्षण शक्ति है, जो अन्य पाँच द्रव्यों में नहीं होती।
पुद्गल द्रव्य में भी शक्तियाँ तो अनन्त हैं, परन्तु स्व और पर को जानने की सामर्थ्य या चेतना गुण नामकी विलक्षण शक्ति जीव को छोड़कर शेष पाँच द्रव्यों में नहीं होती, पुद्गल में भी नहीं होती।
पुद्गल द्रव्य में रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये चार विशेष गुण हैं, जो अन्य पाँच द्रव्यों में नहीं होते।
इस प्रकार जीव और पुद्गल ही एक-दूसरे के लिए साधक-बाधक, सुखी-दुःखी, हलन-चलन, जीवन-मरण तथा स्थिरता-भंगुरता आदि परिणमन रूप क्रियाओं में परस्पर निमित्त कारण बनते रहते हैं। सारांश यह कि षद्रव्यमयी शाश्वत लोक में जीव और पुद्गल यही दो सक्रिय द्रव्य हैं। इनके सारे परिणमन परस्पर सहयोग से ही होते हैं। इनका परिणमन सहकारी निमित्त के बिना नहीं होता, क्योंकि अशुद्ध द्रव्य में वैसा हो नहीं सकता।
कारण पाकर जीव और पुद्गल में अपने आकार में संकोच-विस्तार करने की और स्थूलता तथा सूक्ष्मता रूप परिणमित होने की विशेष शक्ति होती है, जो अन्य चार द्रव्यों में नहीं होती। __ ये दोनों द्रव्य ही मूर्तिक हैं। जीव द्रव्य मूलत: तो अमूर्तिक है, परन्तु अपनी विकारी दशा में देह में देही रूप में देखा पहचाना जाता है, इस अपेक्षा से उसे कथंचित् मूर्तिक कहा गया है। पुद्गल द्रव्य अपने स्पर्श-रूप-रस और गन्ध गुणों के कारण स्पष्टतः मूर्तिक ही है। ___ जीव और पुद्गल ये दोनों द्रव्य अपने कारणों से या एक-दूसरे के संग-दोष से, अपनी परिस्थिति या अपनी पर्याय से, अगली पर्याय की ओर संसरण करते हैं, सरकते रहते हैं। इसी कारण इनके सम्मिलित या एकल अभिनय का नाम संसार है। भव-भ्रमण भी इसी जगत-लीला का नाम है।
इन द्रव्यों के उपर्युक्त सम्मिलित परिणमन में प्रसंगानुसार, या कथनकार के अभिप्राय के अनुसार, मुख्य को उपादान तथा सहकारी को निमित्त कहा जाता है। किसे निमित्त कहा जाये, और किसे उपादान का श्रेय दिया जाये, अथवा किसे मुख्यता दी जाये और किसे गौण किया जाये, इसका निर्णय अधिकांशतः वक्ता के अभिप्राय पर निर्भर होता है। सिद्धान्त शास्त्रों में इस निमित्त-उपादान कथन अथवा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध की
जीव और कर्म सम्बन्ध :: 273
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