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औपशमिक आदि जीव के भाव
पं. रतनलाल बैनाडा
जैनदर्शन के अनुसार जीव-द्रव्य परिणामी है। वह प्रतिक्षण परिणमन करता है। यह परिणमन कर्म-निरपेक्ष भी होता है और कर्म-सापेक्ष भी। मुक्त जीव कर्म- रहित होते हैं, उनका परिणमन कर्म-निरपेक्ष अर्थात् स्वाभाविक ही होता है। संसारी जीव कर्म-सहित होते हैं, उनका परिणमन कर्म-सापेक्ष होता है। कर्मों के संयोग से होने वाली परिणति विशेष को भाव कहते हैं अथवा चेतन (आत्मा) के परिणमन को भाव कहते हैं।'
सामान्य से जीव के भाव पाँच प्रकार के कहे गये हैं.-1. औपशमिक, 2. क्षायिक, 3. क्षायोपशमिक, 4. औदयिक, 5. पारिणामिक, इन पाँचों भावों की परिभाषा निम्न प्रकार है
1. औपशमिक भाव- जैसे गन्दे जल में निर्मली डाल देने से जल की गन्दगी नीचे बैठ जाती है, उसी तरह आत्मा में विभाव उत्पन्न करने वाले कर्मों का विशुद्ध परिणामों द्वारा दब जाना उपशम कहलाता है। इस उपशम के कारण होने वाले परिणाम औपशमिक कहलाते हैं।
2. क्षायिक भाव- जैसे गन्दे पानी की मिट्टी नीचे बैठ जाने पर, ऊपर के स्वच्छ जल को अलग बर्तन में निकाल लेने से पानी गन्दगी-रहित हो जाता है। उसी तरह आत्मा में राग-द्वेषादि परिणाम-रूप अशुद्धि उत्पन्न करने वाले कर्मों का, आत्मा से पृथक् हो जाना क्षय कहलाता है। इस क्षय के कारण आत्मा में जो विशुद्ध परिणाम उत्पन्न होते हैं, वे क्षायिक भाव कहे जाते हैं।
3. क्षायोपशमिक भाव- जैसे जल में कुछ गन्दगी दब जाने पर तथा कुछ गन्दगी शेष रहने पर, पानी मटमैला-सा बना रहता है, उसी प्रकार आत्मा में रागादि उत्पन्न करने वाले कर्मों के कुछ अंश के क्षय हो जाने तथा कुछ अंश के उपशम रहने रूप दशा को क्षयोपशम कहते हैं। इस क्षयोपशम के कारण, आत्मा में जो भाव उत्पन्न होते हैं, उनको क्षायोपशमिक कहा जाता है।
4. औदयिक भाव-जैसे पानी में गन्दगी रहने से पानी मटमैला बना रहता है, उसी प्रकार कर्म उदय के कारण आत्मा में अशुद्धि उत्पन्न होना उदय कहलाता है। इस उदय
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