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और वह है उसका साध्य के साथ निश्चित अविनाभाव। अविनाभाव का अर्थ है-उसके बिना इसका न रहना। साध्य के बिना हेतु नहीं रहता, यही उसका लक्षण है। हेतु के बिना साध्य तो रह सकता है। धूम के बिना अग्नि रह सकती है, किन्तु अग्नि के बिना धूम नहीं रह सकता अर्थात् धूम तभी होता है, जब अग्नि हो। हेतु तभी होता है, जब साध्य हो। साध्य के न होने या अभाव होने पर हेतु का भी अभाव रहता है। हेतु का लक्षण यही है कि उसका साध्य के साथ निश्चित अविनाभाव सम्बन्ध रहता है। अविनाभाव के अर्थ में अन्यथानुपपन्न एवं अन्यथानुपपत्ति शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। इसलिए कुछ दार्शनिक हेतु का लक्षण प्रतिपादित करते हुए हेतु की साध्य के साथ निश्चित अन्यथानुपपत्ति बतलाते हैं। यहाँ उल्लेखनीय है कि पात्रस्वामी, भट्ट अकलंक, विद्यानन्दि आदि सभी जैन दार्शनिकों ने बौद्धों के द्वारा प्रतिपादित हेतु के त्रिलक्षण (पक्षधर्मत्व सपक्षत्त्व एवं विपक्षासत्त्व) का तथा न्यायदार्शनिकों द्वारा मान्य हेतु के पंचलक्षण (उपर्युक्त तीन+असत्प्रतिपक्षत्व और अबाधितविषयत्व) का निरसन कर साध्याविनाभविता स्वरूप एक हेतु-लक्षण को प्रतिपादित किया है। पात्रस्वामी विलक्षणकदर्शन ग्रन्थ में कहते हैं
अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्।
नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्। साध्य किसे कहा जाय? ...साधारण रूप से हम जिसे सिद्ध करना चाहते हैं, उसे साध्य कहते हैं, किन्तु प्रमाण-चिन्तक जैन दार्शनिक उसकी तीन विशेषताओं का उल्लेख करते हैं-1. वह असिद्ध या अज्ञात होना चाहिए, ज्ञात हो जाने या सिद्ध हो जाने पर उसे साध्य नहीं कहा जा सकता; 2. प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से वह बाधित नहीं होना चाहिए, जैसे अग्नि में शीतलता सिद्ध करना प्रत्यक्ष से बाधित है, अत: वह साध्य नहीं हो सकता; 3. प्रमाता का उसे सिद्ध करना अभीष्ट होना चाहिए- इन तीन विशेषताओं से युक्त साध्य को ही हेतु के द्वारा सिद्ध किया जाता है।
तीसरा जो महत्त्वपूर्ण घटक है, वह है साध्य एवं हेतु में व्याप्ति-सम्बन्ध । न्यायदार्शनिक हेतु एवं साध्य के साहचर्य नियम को अथवा हेतु एवं साध्य के स्वाभाविक सम्बन्ध को व्याप्ति कहते हैं। जैन दार्शनिकों ने अविनाभाव नियम को व्याप्ति कहा है। जहाँजहाँ धूम होता है, वहाँ-वहाँ अग्नि होती है, यह व्याप्ति का एक रूप है तथा जहाँ अग्नि नहीं होती, वहाँ धूम नहीं होता, यह व्याप्ति का दूसरा रूप है। इन दोनों को अविनाभावनियम रूप व्याप्ति से फलित किया जाता है। जैन दर्शन के हेतु-लक्षण में भी इस अविनाभाव को स्वीकार किया गया है, क्योंकि हेतु के लक्षण में उसकी साध्य के साथ व्याप्ति को स्थापित करना आवश्यक है। व्याप्ति को जैन दार्शनिकों ने अन्तर्व्याप्ति और बहिर्व्याप्ति के भेद से दो प्रकार का बतलाया है। जिस पक्ष (साध्यदेश) में हेतु से साध्य को सिद्ध किया जाय और हेतु की उस साध्य से व्याप्ति उस पक्ष (साध्य
208 :: जैनधर्म परिचय
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