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प्रश्नों का तर्क-संगत उत्तर देना कठिन है। यद्यपि विभिन्न दार्शनिक परम्पराओं में इनके अलग अलग साम्प्रदायिक समाधान हैं, परन्तु प्रतीत होता है कि मानव ने जब स्वयं एवं अन्य बाह्य जगत् के सम्बन्ध में अपनी विवेक-बुद्धि का प्रयोग किया होगा, तभी से ज्ञान और ज्ञान के साधनों का प्रयोग प्रारम्भ हुआ होगा। ज्ञात हो कि दार्शनिक सम्प्रदायों के आधार पर ऐतिहासिक निर्णय पर पहुँचने में सबसे बड़ी बाधा अपने सम्प्रदाय के प्रति अन्ध-श्रद्धा है। जब वे युक्ति-तर्क के बल पर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचते, तब वे उसे अपने सम्प्रदाय के प्रवर्तक की वाणी कहकर या आगमशास्त्र आदि का उल्लेख बताकर उसकी यथार्थता सिद्ध करते हैं। ...परन्तु भारतीय दर्शनों में जैनदर्शन की यह विशेषता है कि वह अन्ध-श्रद्धा को स्थान नहीं देता। जैनाचार्यों ने स्पष्ट घोषणा की है कि जिनके वचन युक्ति और शास्त्र से अविरोधी हों, वही आप्त हैं और उनके ही वचन प्रामाणिक हो सकते हैं। ऐसे आप्त के वचन जिन शास्त्रों, आगमों में निबद्ध हों, उनसे विवादित विषय की प्रामाणिकता सिद्ध की जा सकती है। जैनाचार्यों ने यह भी लिखा है कि आगम से अहेतुगम्य तत्त्वों की प्रामाणिकता सिद्ध होती है तथा हेतुगम्य तत्त्वों की प्रामाणिकता युक्ति और तर्क बल से सिद्ध होती है। प्रमाण का स्वरूप
जैनदर्शन में प्रमाण के विकसित स्वरूप के पूर्व समग्र-चिन्तन की परम्परा तीर्थंकरों की देशना से जुड़ी है, जिसका सर्वप्रथम उपलब्ध रूप द्वादशांग-आगमों में देखा जा सकता था, दिगम्बर और श्वेताम्बर के रूप में विभाजित परम्पराओं द्वारा क्रमश: ग्यारह अंगों का उच्छेद एवं आविर्भाव मानने के कारण, मूलभूत सिद्धान्तों में प्रायः समानता होने पर भी प्रमाण, प्रमाण-भेद, नय आदि दार्शनिक तत्त्वों की ऐतिहासिकता के सन्दर्भ में मतभेद दृष्टिगोचर होते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगमों में प्रमाण, प्रमाणभेद, नय आदि की विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है, परन्तु दिगम्बर परम्परा में उमास्वामी से पूर्व प्रमाण का वैसा विवेचन नहीं पाया जाता है। प्रमाण, नय आदि के दार्शनिक शैली में विवेचन से पूर्व इनके विकास का प्रमुख आधार ज्ञान का विवेचन आत्मा की क्रमिक-विशुद्धता को केन्द्र-बिन्दु बनाकर आगमिक शैली में किया जाता रहा है। आत्मा का ज्ञान जितने अंशों में आत्म-सापेक्ष एवं जितने अंशों में इन्द्रिय-सापेक्ष होकर प्रकट होता है, उसी के आधार पर उतने अंशों में उसकी क्रमिक-प्रामाणिकता का निर्णय किया जाता रहा। प्रमाण के भेद निर्धारण करने में भी यही सैद्धान्तिक मान्यता आधार बनी। दार्शनिक युग से पूर्व दिगम्बर आगमिक परम्परा में प्रमाण का कार्य ज्ञान के द्वारा सिद्ध किया जाता था। दोनों में अन्तर इतना था कि आगमिक परम्परा में ज्ञान की मीमांसा मोक्षमार्ग को केन्द्र-बिन्दु मानकर होती रही। जबकि प्रमाण-मीमांसा का क्षेत्र मोक्षमार्ग
प्रमाण, नय और निक्षेप :: 215
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